छप्पन व्यंजन नहीं बल्कि पड़ावों से जुड़ा है ‘छप्पन भोग’

ब्रज में एक लोकोक्ति बहुत प्रसिद्ध है – “हलुआ में हरि बसत हैं, घेबर में घनश्याम। मक्खन में मोहन बसैं, रबड़ी में श्री राम।। यहां बात हो रही है भगवान की खान-पान से संबंधित रुचियों की। और, यदि भगवान के खान-पान की बात चले तो सबसे पहले याद आता है ‘छप्पन भोग’।

आज भले ही ‘छप्पन भोग’ शब्द और इसकी परिकल्पना देश-विदेश तक पहुंच चुकी है, पर संभवतः अधिकांश लोगों को यह पता नहीं है कि इस रसपूर्ण खान-पान का सीधा संबंध केवल कान्हा की ब्रजभूमि से है। साथ ही, यह भी एक सत्य है कि छप्पन भोग का मतलब 56 प्रकार के व्यंजनों से नहीं है। दुनियाभर के मंदिरों में ‘छप्पन भोग’ लगाया जाता है, और 56 व्यंजन प्रस्तुत किए जाते हैं। लेकिन, वास्तव में इस संख्या से इसका कोई लेना-देना नहीं है।

इसके पीछे प्रचलित कहानी के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण जब अपने ग्वाल सखाओं के साथ जंगल में गाय चराने जाते थे तो उस समय सभी ग्वाल-बाल अपने-अपने घरों से नाना प्रकार के व्यंजन लेकर आते थे और सबसे पहले अपने बाल सखा कृष्ण कन्हैया को चखाते थे। अलग-अलग तरह के व्यंजनों का स्वाद चखते चखाते यह परम्परा आज भी उसी भाव से निभाई जा रही है। जो कुछ भी हमें प्रिय है वह हम अपने प्रिय कन्हैया को भोग के रूप में समर्पित करते हैं।

इसी तरह, बंग संस्कृति में अन्नकूट की बड़ी महिमा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, श्रीकृष्ण ने इंद्र पूजा के निमित्त बनवाए गए नाना प्रकार के व्यंजनों का स्वयं गोवर्धन के रूप में ग्रहण किया। इस तरह स्वयं द्वारा स्वयं की पूजा ब्रज की लोक परंपरा में प्रारम्भ से ही निहित थी। अत: जब तैलंग महाप्रभु बल्लभाचार्य ने इस परम्परा की पुष्टि की और उसे ‘श्रीनाथजी’ को प्रस्तुत किया तो यह मंदिर-परंपरा बन  गई। दीपावली के दूसरे दिन से शुरू हुई यह प्रथा आज तक जारी है। बंग प्रान्तीय सनातन गोस्वामी के शिष्यों ने इसे ‘अन्नकूट’ का नाम दिया। इसमें पकाए हुए चावलों का ढेर और कुछ गीली, सूखी, तरकारियों के साथ-साथ लोक मिष्ठान खीर यानी पायस को भी परोसा गया। उद्देश्य स्पष्ट था..., अपने आराध्य को सभी तरह के स्वादों यानी खट्टा, मीठा, तीखा, नमकीन, कसैला और कड़वा का आस्वादन देना। बंग भूमि में करेले के अलावा कड़वे नीम की पत्तियों से भी भाजी बनाने का रिवाज है।

इसी बीच, ब्रजभूमि की पारंपरिक भौगोलिक सीमा की चौरासी कोसीय परिधि की परिक्रमा की भी पुनः प्रतिष्ठा हुई। इस परिक्रमा धीरे-धीरे एक बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लेना प्रारम्भ किया। लगभग 40 दिन में पूरी होने वाली यह परिक्रमा की परम्परा जिन पड़ावों पर रात्रि विश्राम करती थी, वहां कान्हा की प्रतिमा को भोग लगाया जाता है। यह परंपरा आज भी निभाई जा रही है।

कालांतर में, गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के जीवन काल में ही इन पड़ाव स्थलों की संख्या घटते-बढ़ते, अतंतः 56 स्थलों में परिगणित हो गई। इन 56 पड़ावों पर भोग लगाने की पंरपरा ने ऐसा रंग भरा कि कहीं ठाकुर का माखन-मिश्री से, तो कहीं कढ़ी-चावल से, कहीं खीर से, तो कहीं न्यूनाधिक व्यंजनों से भोग लगाया जाने लगा। धीरे-धीरे सभी 56 पड़ावों पर समस्त प्रकार के भोगों की संख्या 300 से भी ज्यादा हो गई।

ब्रजभूमि में तत्कालीन पंरपरा रही थी कि चौरासी कोस की परिक्रमा का प्रारम्भ इस तरह किया जाए कि उसका समापन दीपावली के दूसरे दिन हो। भक्तों के मनोरथ को ध्यान में रखकर यह पंरपरा बन गई कि 56 पड़ाव स्थलों पर समस्त प्रकार के भोगों को एक ही दिन और स्थान पर प्रदर्शित किया जाए और भक्तों को प्रसाद रूप में बांटा जाए, ताकि वे 84 कोस की पूरी यात्रा में सभी प्रसाद ग्रहण कर सकें। कुल मिलाकर 56 भोग की यही कथा है। यह ब्रज चौरासी कोस परिक्रमा के 56 पड़ाव स्थलों पर नाना रूपों में परोसे गए भोगों का, एक ही स्थान पर एक साथ ग्रहण करना है। इन भोगों की संख्या 300 प्रकार से भी ऊपर होती है, न कि सिर्फ 56। हां, यह भक्तों का भाव है कि वे इसे जिह्वा आस्वादन के अनुसार 56 व्यंजनों तक सीमित रखें।

ब्रजभूमि में ऐसा प्रथम महाआयोजन 15वीं सदी में बल्देव जी के मंदिर में गोस्वामी बिट्ठलनाथ जी ने संपन्न कराया था। मौजूदा श्री नाथजी मंदिर में प्रत्येक वर्ष दीपावली के दूसरे दिन अन्नकूट और छप्पन भोग का महाकार्यक्रम होता है।

छप्पन भोग, सिद्धांत रूप से भगवान को अर्पित किया जाने वाला और बाद में स्वयं द्वारा प्रसाद रूप में खाया जाने वाला खाद्य प्रसाद है। इसमें फल और सब्जी से लेकर समस्त प्रकार के शाकाहारी व्यंजन, दाल, रोटी, परांठा, पूरी, कचौड़ी, मिष्ठान, खीर, नमकीन, शर्बत, रस, अचार, चटनी व मुरब्बे तक शामिल हो सकते हैं।

कालांतर में हनुमान मंदिर, शनि मंदिर व काली मां के मंदिरों में भी छप्पन भोग के आयोजन होने लगे।

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