साहित्य / मीडिया

भारतीय मीडिया की वर्तमान स्थिति बेहद रोचक है और चिंताजनक भी। यह एक ऐसा समय है जब मीडिया अपने मौलिक लक्ष्यों से भटका हुआ प्रतीत होता है। माना जा रहा है कि मुख्यधारा मीडिया पश्चिमी संस्कृति से पोषित और प्रेरित होता हुआ आम भारतीयों से कटता जा रहा है। साथ ही, निम्न-गुणवत्ता, उपभोक्तावादी और अश्लील सामग्री को बढ़ावा दे रहा है।

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तमिलनाडु जैसे राज्यों के विरोध के बावजूद, पूरे भारत में हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाने का विचार एक आवश्यक, दिलचस्प, लेकिन जोखिमभरा कदम है। चुनावी राजनीति को अलग रखते हुए, देखने में आ रहा है कि आज हिंदी और अंग्रेजी दोनों तेजी से आगे बढ़ रही हैं। वे लोग जो दोनों भाषाओं को समझते और बोलते हैं, हर जगह पाए जा सकते हैं।

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भारतीय मीडिया आज़ादी के कई दशकों बाद तक, झूठा ही सही या दिखावे के लिए ही, विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभाता रहा। बड़े-बड़े खुलासे हुए, सरकारें तक गिर गईं। कार्टूनिस्टों को भी नेताओं की खिंचाई के लिए खूब मौके मिलते थे। 1970 का दशक प्रेस की स्वतंत्रता का काला और स्वर्णिम युग था। आपातकाल के पहले और बाद में मीडिया ने आज़ादी का भरपूर उपयोग किया।

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महाकुंभ में जहां करोड़ों श्रद्धालु गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर आस्था की डुबकी लगा रहे हैं, वहीं मेले में लगे विभिन्न प्रदर्शनी पंडालों में साहित्य, संस्कृति और ज्ञान की अविरल धारा प्रवाहित हो रही है...

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हिंदी भाषा की बढ़ती लोकप्रियता और व्यापक स्वीकार्यता इस बात का प्रमाण है कि यह सिर्फ भारत तक सीमित नहीं रही है, बल्कि अब वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है। हिंदी को भारत की लोक भाषा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली भाषा बनाने में साहित्यकारों, हिंदी संस्थानों और भाषा प्रेमियों का योगदान बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन जनसंचार माध्यमों, विशेष रूप से बॉलीवुड और टेलीविजन चैनलों की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता...

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ऐसी दुनिया जहां स्वतंत्र पत्रकारिता निहित स्वार्थों से खतरे में है, हिंसक दमन और प्रौद्योगिकी के ‘बिग ब्रदरली’ चालों से घिरी हुई है, वहां इतिहास की गूंज एक बार फिर सुनाई दे रही है...

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