साल 2024 के लोकसभा चुनाव अपनी आधी यात्रा पूर्ण करने के पश्चात जैसे-जैसे अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे प्रतिभागी नेतागणों के मध्य सिर-फुटौव्वल व आरोप-प्रत्यारोप भी बढ़ते जा रहे हैं।
चुनावी वातावरण में नेताओं के लिए जनता ईश्वरस्वरूप होती है और प्रतिद्वंद्वी पार्टी के शीर्षस्थ नेता, अपने इस ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए हर सम्भव प्रयास में जुटे हुए हैं। इस बार सबसे बड़ी विशेषता यह दिख रही है कि यह चुनाव ‘मोदी बनाम इंडिया’ के रूप में परिवर्तित हो गया है।
नरेंद्र मोदी अपनी 73 वर्ष की उम्र में भी प्रतिदिन न केवल चुनावी सभाओं को सम्बोधित कर रहे हैं, बल्कि पथ प्रदर्शन के माध्यम से जनता के मध्य अपनी लोकप्रियता को भी लगातार बढ़ाने में जुटे हुए हैं। स्वतंत्रता से लेकर अब तक, भारत के समस्त प्रधानमंत्रियों में मोदी ने सर्वाधिक, लगभग 650 चुनावी रैलियों को सम्बोधित किया है और सम्भावना है कि वर्तमान चुनावों के अंत तक उनकी रैलियों की यह संख्या 700 से भी अधिक हो जाएगी।
इसके उलट, जैस-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहा है, विपक्षी दलों का गठबंधन अपनी ऊर्जा खोता सा नजर आ रहा है। पहले तीन चरणों में हुए चुनावों के दौरान विपक्ष की ताकत उम्मीद से कहीं ज्यादा बढ़ी नजर आ रही थी। लेकिन, जैसे-जैसे चुनाव उत्तर क्षेत्रों की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे विपक्षियों की ताकत व उत्साह कम होता नजर आ रहा है।
अरविंद केजरीवाल के जमानत पर छूटकर आने के बाद उन्होंने अपनी 10 गारंटी जारी करके कहीं न कहीं यह घोषणा कर ही दी कि यदि मोदी का कोई विकल्प है तो वह स्वयं ही हैं। राहुल गांधी पहले से ही अपने को प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार मानते रहे हैं। ममता बनर्जी और शरद पवार भी मौका मिलते ही मुश्कें बांधते दिखने लगते हैं।
इससे पहले, नीतीश कुमार और मायावती ने संभवत: मौके की नजाकत को समझते हुए अपनी रणनीतीयों में बड़े बदलाव किए। एक ओर जहां नीतीश कुमार ने मोदी का ही हाथ थाम लिया, वहीं मायावती ने अपनी सत्ता के साथ जुड़ने की संभावनाओं को किसी न किसी तरह जिंदा रखने का ही काम अब तक किया है। यहां तक कि लगातार बीजेपी के खिलाफ बोल रहे अपने भतीजे को उन्होंन पदमुक्त कर दिया और उन्हें राजनीति सीखने की सलाह भी दे डाली।
इस प्रकार विपक्षियों के गठबंधन में सिर्फ गांठें ही गांठें नजर आ रही हैं। दूसरी ओर, अपने गढ़ की ओर बढ़ते नरेंद्र मोदी पहले से ज्यादा उत्साह से भरे नजर आ रहे हैं। अंतिम परिणाम क्या होगा यह तो चार जून को ही पता चलेगा। लेकिन, चुनाव के शुरू में जो संघर्ष बराबरी का नजर आ रहा था वह अब कम से कम ‘बराबर’ तो नहीं रहा है।
(सेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। यहां व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं)
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