पितृपक्ष, पितरों की मुक्ति और पुनर्जन्म का अद्भुत रहस्य

अक्सर मन में प्रश्न उठता है कि यदि पुनर्जन्म है और आत्मा को दूसरा शरीर ग्रहण करना ही होता है तो फिर श्राद्ध कर्म का प्रयोजन क्या है? या यदि वह आत्मा विशेष सदा आत्मा ही रहती है तो क्या पुनर्जन्म की अवधारणा बिल्कुल ग़लत है?

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए संस्कारों की अवधारणा को समझना ज़रूरी है। आत्मा जब शरीर छोड़ती है और दूसरा शरीर धारण करती है, तो वह इस जन्म के अर्जित संस्कारों को भी अपने साथ ले जाती है। ये संस्कार और कुछ नहीं बस वे ‘गहरी भावनाएं’ है, जिन्हें उसने इस जन्म में बहुत शिद्दत से जीया होता है। जैसे, किसी के प्रति अति मोह, किसी के प्रति गहरा क्रोध, कोई ग्लानि, कोई क्षोभ, या कुछ और..। कुछ भी ऐसा जिसने उस व्यक्ति के मन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला हो। वे क़िस्से और उनकी स्मृतियां शरीर के साथ यहीं छूट जाते हैं पर वे ‘प्रभाव’ संस्कार बनकर आगे के जन्मों में साथ चले जाते हैं। अपने पितृजनों को इस जन्म के उन राग-द्वेष प्रभावों से मुक्त हो सकने देने की प्रार्थनाओं के दिन पितृपक्ष कहलाते हैं।

अब सवाल यह है कि श्राद्ध करने से क्या हो जाएगा...? तो माना जाता है कि श्राद्ध हमसे विदा ले चुकी आत्मा की शांति के लिए होता है। आत्मा की शांति यानी उस आत्मा को यह संदेश देना के तुम्हारे वंशज तुम्हारे कृतज्ञ हैं तथा तुम्हारे अधूरे छूटे दायित्वों को भलीभांति संभाल लेंगे। इसके लिए मंत्रोच्चार और अन्य विधि विधान इसलिए किए जाते हैं, ताकि उस आत्मा को इन उद्वेलित करने वाले भावों से मुक्त होने में सहायता मिल सके। विदा ले चुकी आत्माओं तक हमारी तीव्र भावनाओं की तरंगें पहुंचती है, इसीलिए कहा जाता है कि जो चला गया उसके लिए अपशब्द नहीं कहने चाहिए, क्योंकि हमारा प्रेम उस आत्मा को सबल बनाने में सहयोग करता है और घृणा उसे कमज़ोर बनाती है। उनकी याद में पीड़ा प्रेषित करना उन्हें विचलित करता है, इसलिए, जन्म और जीवन देने वाले पितृजनों की आगे की यात्रा के लिए कृतज्ञ वंशजों के तौर पर यह हमारा कर्तव्य भी है और धर्म भी...।

पितृ पक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि से शुरू होते हैं और आश्विन मास की अमावस्या को समाप्त होते हैं। इस तरह, इस साल ये पूर्णिमा तिथि 29 सितंबर से आरंभ होकर 14 अक्टूबर तक रहेंगे। इस समय में पितरों को पिंडदान देना उनको मोक्ष प्राप्ति सहज बनाता है। वैसे तो पितरों को तर्पण आदि घर पर भी किया जा सकता है, लेकिन गया में पितरों को पिंड दान देने का ख़ास महत्व है। माना जाता है कि गयासुर को भगवान विष्णु के वरदान के कारण यहां से पिंड दान पाकर पितरों को मोक्ष प्राप्त  होता है। माता सीता ने भी अपने श्वसुर दशरथ का पिंड दान यहीं किया था।

मोक्ष की नगरी के रूप में गया की चर्चा विष्णु पुराण और वायु पुराण में की गई है। इसे विष्णु का नगर भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है की भगवान विष्णु यहां स्वयं पितृ देवता के रूप में विराजमान हैं, इसलिए, गया को पितृ तीर्थ भी कहा गया है। यहां मौजूद फल्गु और पुनपुन नदी में पिंड दान करने का विधान है।

एक कथा के अनुसार भस्मासुर के वंशज गयासुर ने कठोर तप कर ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया। उसने ब्रह्मा से यह वरदान मांगा कि उसका शरीर देवताओं को तरह पवित्र हो जाए और उसके दर्शन मात्रा से ही जीव सभी पापों से मुक्त हो जाएं और उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो। इस वरदान से स्वर्ग की व्यवस्था बिगड़ गई और स्वर्ग में लोगों की संख्या बढ़ने लगी। लोगों में पापों की प्रवृति बढ़ गई और लोगों में पापकर्मों से होने वाला डर खत्म होने लगा। सब यह मानने लगे कि गयासुर के दर्शन से ही सभी पाप नष्ट हो जाएंगे।

इस अव्यवस्था से बचने के लिए देवताओं ने गयासुर से यज्ञ के लिए पवित्र भूमि की याचना की। देवताओं को गयासुर ने अपना पवित्र शरीर ही दान कर दिया। उसका मानना था कि उसके शरीर से पवित्र कोई भूमि नहीं हो सकती, इसलिए वह भूमि पर लेट गया और उसके शरीर पर यज्ञ का आयोजन किया गया। लेकिन, गयासुर के मन से लोगों को पवित्र करने की इच्छा नहीं गई। उसने देवताओं और विष्णु से वरदान मांगा की जो कोई इस पवित्र भूमि में पूजन करे, उसको मोक्ष की प्राप्ति हो। जो भी लोग यहां किसी को पिंडदान करे, उसे भी मोक्ष की प्राप्ति हो। देवताओं ने गयासुर को यह वरदान सहर्ष दे दिया। इसके बाद यह स्थान पवित्र पितृ तीर्थ गया के नाम से विख्यात हुआ। यही कारण है कि पितरों को पिंडदान देने यहां देश-विदेश से लोग आते हैं।

एक अन्य कहानी के अनुसार, भगवान विष्णु ने बुरे कर्म करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति से रोकने के लिए गयासुर को पाताल लोक में जाने को कहा। इसके लिए विष्णु ने अपने चरण गयासुर के वक्ष पर रख दिए। गयासुर धरती के अंदर चला गया। आज भी गयासुर के शरीर पर विष्णु पद चिह्न हैं। उस स्थान पर भव्य विष्णु पद मंदिर बना है। यह पद चिह्न शंख, चक्र और गदा सहित नौ प्रतीकों से युक्त है। धरती के अंदर समाहित गयासुर ने भगवान विष्णु से अपने लिए आहार की याचना की और भविष्य में अपने लिए उपयुक्त कर्म भी पूछे। भगवन विष्णु ने उसे वरदान दिया कि प्रत्येक दिन कोई न कोई तुम्हें भोजन दे जाएगा। जो कोई तुम्हे भोजन कराएगा, उसे स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होगी। ऐसी मान्यता है कि जिस दिन गयासुर को भोजन नहीं मिलेगा वह धरती से बाहर निकल आएगा। प्रत्येक दिन देश-विदेश से लोग आते हैं और अपने पितरों की शान्ति के लिए यहां विष्णुपद की पूजा करते हैं।

श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में इसे आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसको पितृ पंधरवडा नाम से जाना जाता है। तर्पण करना ही पिंडदान करना कहलाता है। सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है। वेदों में श्राद्ध को पितृयज्ञ कहा गया है। यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता, पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव व्यक्त करता है। यह पितृयज्ञ सन्तानोत्पत्ति और सन्तान की सही शिक्षा-दीक्षा से सम्पन्न होता है। इसी से 'पितृ ऋण' भी चुकता होना माना जाता है।

वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं- ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ व अतिथि यज्ञ। उक्त पांच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। इनमें से ही एक पितृयज्ञ को पुराणों में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है। पितृयज्ञ या श्राद्धकर्म के लिए अश्विन माह का कृष्ण पक्ष नामित किया गया है। सूर्य के कन्या राशि में रहते समय आश्विन कृष्ण पक्ष पितर पक्ष कहलाता है। जो इस पक्ष तथा देहत्याग की तिथि पर अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उस श्राद्ध से पितर तृप्त हो जाते हैं।

श्राद्ध पक्ष में व्यसन और मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। पूर्णत: पवित्र रहकर ही श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। रात्रि में श्राद्ध नहीं किया जाता। श्राद्ध का समय दोपहर साढ़े बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अन्न का अंश निकालते हैं, क्योंकि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी माने जाते हैं। हमारे जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें दोबारा जन्म नहीं मिला, ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में लिप्त आत्माओं के लिए अंतिम बार एक वर्ष पश्चात 'गया' में मुक्ति-तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता है। गया के अतिरिक्त और कहीं भी यह कर्म नहीं होता है।

यजुर्वेद में कहा गया है कि जिन्होंने तप-ध्यान किया है, वे शरीर छोड़ने के पश्चात ब्रह्मलोक चले जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं और वहीं उनका न्याय होता है।

धर्मशास्त्रों अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।

सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्र का भ्रमण होता है तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं, इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का विशेष महत्व है।

पुराणों के अनुसार, मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसकी नियति का निर्णय करता है। इसका प्रधान यमराज है। अत: यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इसके मुख्य गण प्रधान हैं।

इनके अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बर्हिपद-गन्धर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित पितर हैं। वेदों में उल्लेखित है कि यम नाम की एक प्रकार की वायु होती है। देहांत के बाद कुछ आत्माएं उक्त वायु में तब तक स्थित रहती हैं, जब तक कि वे दूसरा शरीर धारण नहीं कर लेतीं। 'मार्कण्डेय पुराण' के अनुसार दक्षिण दिशा के दिकपाल और मृत्यु के देवता को यम कहते हैं। वेदों में 'यम' और 'यमी' दोनों देवता मंत्रदृष्टा ऋषि माने गए हैं। वेदों के 'यम' का मृत्यु से कोई संबंध नहीं था पर वे पितरों के अधिपति माने गए हैं।

यम के लिए पितृपति, कृतांत, शमन, काल, दंडधर, श्राद्धदेव, धर्म, जीवितेश, महिषध्वज, महिषवाहन, शीर्णपाद, हरि और कर्मकर विशेषणों का प्रयोग होता है। योग के प्रथम अंग को भी यम कहते हैं। दसों दिशाओं के दस दिकपालों में से एक है यम। ये दस दिकपाल इंद्र, अग्नि, यम, नऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईश्व, अनंत और ब्रह्मा हैं। इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है।

जड़-चेतनमयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में सूर्य तथा वरुण देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं।

पूर्वजों के कार्यों के परिणामस्वरूप, आने वाली पीढ़ी पर पड़ने वाले अशुभ प्रभाव को पितृदोष कहते हैं। पितृदोष का अर्थ यह नहीं कि कोई पितृ अतृप्त होकर आपको कष्ट दे रहा है। पितृदोष का अर्थ वंशानुगत, मानसिक और शारीरिक रोग और शोक भी होते हैं।

घर और बाहर जो वायु है वह सभी पितरों को धूप, दीप और तर्पण देने से शुद्ध और सकारात्मक प्रभाव देने वाली होती है। इस धूप, श्राद्ध और तर्पण से पितृलोक के तृप्त होने से पितृदोष मिटता है। पितरों के तृप्त होने से पितर आपके जीवन के दुखों को मिटाते हैं।

यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है, तथापि आश्विन कृष्ण अमावस्या को ‘पितृविसर्जनी अमावस्या’ या महालया कहते हैं। जिनको अपने पितरों की तिथि याद नही हो, या जो पितृपक्ष में 15 दिन में श्राद्ध नहीं करते हैं, वे अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इस दिन करते हैं। इस दिन के बाद सभी पितरों का विसर्जन होता है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देकर अपने लोक को लौट जाते हैं।

प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की 14 तिथियों में श्राद्ध-दान करने से मनुष्य 14 फल यानी रूप-शीलयुक्त कन्या, बुद्धिमान व रूपवान दामाद, श्रेष्ठ पुत्र, पशुधन, विजय, व्यापार में लाभ, खेती व नौकरी में लाभ, समृद्धि, ओज-तेज, निरोगता, बल, जाति भाइयों में श्रेष्ठता, सम्पूर्ण मनोरथों की प्राप्ति व परम गति को पाता है।

ब्रह्मा ने पितरों को अपराह्नकाल दिया है। असमय दिया गया अन्न पितरों तक नहीं पहुंचता है। सायंकाल में दिया हुआ कव्य राक्षस का भाग हो जाता है। श्राद्ध की जगह पर तिल बिखेर देने से वह स्थान शुद्ध व पवित्र हो जाता है। पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र न हो तो पत्नी कर सकती है। पितृकार्य में कार्य की शुद्धता बहुत जरूरी है और इसे बहुत सावधानी से करना चाहिए। श्राद्धकर्ता को क्रोध, कलह व जल्दबाजी नही करनी चाहिए। श्राद्धकर्म करने वाले को पितृपक्ष में पूरे 15 दिन क्षौरकार्य यानी दाढ़ी-मूंछ बनाना या नाखून नहीं काटने चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

श्राद्ध में सात्विक अन्न-फलों का प्रयोग करने से पितरों को सबसे अधिक तृप्ति मिलती है। काला उड़द, तिल, जौ, सांवा चावल, गेहूं, दूध, दूध के बने सभी पदार्थ, मधु, चीनी, कपूर, बेल, आंवला, अंगूर, कटहल, अनार, अखरोट, कसेरु, नारियल, तेन्द, खजूर, नारंगी, बेर, सुपारी, अदरक, जामुन, परवल, गुड़, मखाना, नीबू आदि अच्छे माने जाते हैं। कोदो, चना, मसूर, कुलथी, सत्तू, काला जीरा, टेंटी, कचनार, कैथ, खीरा, लौकी, पेठा, सरसों, काला नमक व कोई भी बासी, गला-सड़ा, कच्चा व अपवित्र फल और अन्न श्राद्ध में प्रयोग नहीं करना चाहिए। श्राद्ध-कर्म में कदम्ब, केवड़ा, बेलपत्र, कनेर, मौलसिरी, लाल व काले रंग के पुष्प और तेज गंध वाले पुष्पों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इन पुष्पों को देखकर पितरगण निराश होकर लौट जाते हैं।

श्राद्ध में अधिक ब्राह्मणों को निमन्त्रण नहीं देना चाहिए। पितृकार्य में एक या तीन ब्राह्मण पर्याप्त होते हैं। ज्यादा ब्राह्मणों को निमन्त्रण देकर यदि उनके आदर-सत्कार में कोई कमी रह जाए तो वह अकल्याणकारी हो सकता है। श्राद्ध के लिए उत्तम ब्राह्मण को निमन्त्रित करना चाहिए जो योगी, वैष्णव, वेद-पुरान का ज्ञाता, विद्या, शील व तीन पीढ़ी से ब्राह्मणकर्म करने वाला व शान्त स्वभाव का हो। श्राद्ध में केवल अपने मित्रों और गोत्र वालों को खिलाकर ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अंगहीन, रोगी, कोढ़ी, धूर्त, चोर, नास्तिक, ज्योतिषी, मूर्ख, नौकर, काना, लंगड़ा, जुआरी, अंधा, कुश्ती सिखाने वाले व मुर्दा जलाने वाले ब्राह्मण को श्राद्ध-भोजन के लिए नहीं बुलाना चाहिए। ध्यान रहे कि श्राद्धकर्ता हाथ में कुशा से बनाई गई अंगूठी धारण किए रहे।

मृत व्यक्तियों की तिथियों पर केवल ब्राह्मण-भोजन कराने की परम्परा है। किसी कारणवश ब्राह्मण-भोजन न करा सकें तो मन में संकल्प करके केवल सूखे अन्न, घी, चीनी, नमक आदि वस्तुओं को श्राद्ध-भोजन के निमित्त किसी ब्राह्मण को दे दें। यदि इतना भी न कर सकें तो कम-से-कम दो ग्रास निकालकर गाय को श्राद्ध के निमित्त खिला देना चाहिए।

श्राद्ध में हविष्यान्न के दान से एक मास तक और खीर के दान से एक वर्ष तक पितरों की तृप्ति बनी रहती है। यदि कुछ भी न बन सके तो केवल घास ले आकर पितरों की तृप्ति के निमित्त से गौओं को अर्पित करे या जल और तिल से पितरों का तर्पण करे। यदि पत्नी रजस्वला है तो ब्राह्मण को केवल दक्षिणा देकर श्राद्ध-कर्म करे। तुलसी से पिण्डार्चन करने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं।

भोजन करते समय ब्राह्मणों से ‘भोजन कैसा बना है।’ यह नहीं पूछना चाहिए; इससे पितर अप्रसन्न होकर चले जाते हैं। श्राद्ध में भोजन करने व कराने वाले को मौन रहना चाहिए। यदि कोई ब्राह्मण उस समय हंसता या बात करता है तो वह हविष्य राक्षस का भाग हो जाता है।

श्राद्ध कर्म में ताम्रपात्र का बहुत महत्व है। लोहे के पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। केवल रसोई में फल, सब्जी काटने के लिए उनका प्रयोग कर सकते हैं। श्राद्ध में भोजन कराने के लिए चांदी, तांबे और कांसे के बर्तन उत्तम माने जाते है। इन बर्तनों के अभाव में पत्तलों में भोजन कराना चाहिए। केले के पत्ते पर श्राद्धभोजन नहीं कराना चाहिए। श्राद्ध के अंत में पितररूप ब्राह्मणों से आशीर्वाद मांगना चाहिए। श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

पितृयज्ञ और पितृदोष एक वैज्ञानिक धारणा है। पितृपक्ष के सोलह दिन अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञ होने के दिन है। ये नतमस्तक वंशावलियों के आभारी होने के दिन है, परंतु ये सतही भावनाओं में बहने के दिन नहीं है! ये प्रार्थनाओं के दिन हैं। वर्ष में दो बार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। जिस तिथि पर व्यक्ति की मृत्यु होती है, उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए। पितृपक्ष में मृत व्यक्ति की जो तिथि आए, उस तिथि पर मुख्यरूप से पार्वणश्राद्ध करने का विधान है।

Related Items

  1. यमपाश से मुक्ति को भाई-बहन यहां यमुना में करते हैं एकसाथ स्नान...

  1. पितरों तक ऐसे पहुंचता है श्राद्ध में समर्पित आहार...

  1. शौर्य से भरे शब्दों की अद्भुत शिल्पकार थीं सुभद्रा कुमारी चौहान


Mediabharti