एक महान वास्तुशिल्पी भी थे भगवान श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण को जानने के लिए राजनीति, धर्म, दर्शन, योग व प्रेम के विभिन्न मार्गों के अलावा वास्तुशिल्प भी एक पक्ष है, जिसके बिना उनसे पूरा परिचय सम्भव ही नहीं है।

भारत में कई विदेशी शासनों की उपेक्षा झेलकर भी इस कला पर उनका प्रभाव आज भी पूरी तरह जीवित और प्रफुल्लित है। वास्तुकला में श्रीकृष्ण की स्फूर्ति कभी बाहर से थोपी नहीं गई। वह स्वयं ही विकसित हुई है और आज पूरे विश्व में बड़ी तीव्र गति से अपना परचम लहरा रही है।

कृष्ण के इस पक्ष को जानने के लिए हमें महाभारत को खंगालना होगा। महाभारत के सभा पर्व में कई विधान कक्षों का मनोरम वर्णन है। मय जाति ने उनके निर्देशों पर पाण्डवों के लिए एक ऐसा विधान कक्ष तैयार किया था जिसका प्रतिरूप कोई विलक्षण वास्तुकार भी नहीं कर सकता। राजसूय यज्ञ में आए हुए अतिथियों को जिन आवासों ठहराया गया था, वे सुवासित कक्ष, उपयुक्त आसन, परिधान तथा शालाओं से युक्त थे।

दूसरी ओर, इन्द्रप्रस्थ की दीवारों के ऊपर तरह-तरह के युद्ध यन्त्रों की व्यवस्था थी। उनके प्रयोग हेतु निपूर्ण योद्धाओं की नियुक्ति होती थी। अन्य दूसरे कलातीर्थों के दर्शनमात्र से ही प्राणी में अलौकिक चेतना एवं निवृत्तिपरक जीवन की अनुभूति होने लगती है।

हरिवंश पुराण के अनुसार एक बार ऐसी परिस्थिति आ गई कि द्वारका नगर छोटा पड़ गया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उसे तोड़कर एक बड़े नगर के रूप में दोबारा बनाने की योजना बनाई। पूरे नगर को समतल करके उसका पुनर्निर्माण कराया गया। नया नगर पहले से कहीं अधिक भव्य था।

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