राज्यों के भाषायी पुनर्गठन के बजाय छोटी प्रशासनिक इकाइयों पर हो विचार

लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से बड़े राज्यों का पुनर्गठन या छोटे राज्यों में विभाजन की मांग का समर्थन किया है। उत्तर प्रदेश को तीन भागों में बांटने की मांग चौधरी अजीत सिंह के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी उठाई है। तजुर्बा बताता है कि छोटी प्रशासनिक इकाइयां आर्थिक और राजनैतिक दृष्टिकोण से सही रहते हैं।

भाषाई आधार पर भारत के राजनीतिक परिदृश्य को नया रूप देने वाला साल 1956 का राज्य पुनर्गठन अधिनियम एक जटिल और विभाजनकारी विरासत छोड़ गया है जो आज भी हमारे कानों में गूंजती रहती है। भाषाओं के आधार पर राज्यों को पुनर्गठित करने का प्रारंभिक प्रयास सांस्कृतिक पहचान और प्रशासनिक दक्षता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किया गया था। इस प्रक्रिया के कारण साल 1956 में मूल 14 राज्यों की तुलना में अब भारत में 29 राज्य हैं, केंद्र शासित इकाइयां अलग।

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हालांकि, भाषा सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और पहचान के लिए एक शक्तिशाली मध्यम हो सकती है, लेकिन, भारत का भाषाई पुनर्रचना अनुभव बताता है कि यह अकेले किसी राष्ट्र की एकता या विभाजन को निर्धारित नहीं करता है। भाषा के आधार पर राज्यों के विखंडन ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि तुलनात्मक रूप से सामाजिक व आर्थिक कारक अक्सर किसी राष्ट्र के ताने-बाने को आकार देने में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

राजनीतिक दबावों और विभिन्न भाषाई समूहों को खुश करने की इच्छा से प्रेरित पुनर्गठन प्रक्रिया की जल्दबाजी ने ऐसे निर्णय लिए जो हमेशा भूगोल, जनसंख्या आकार और प्राकृतिक संसाधन वितरण जैसे महत्वपूर्ण कारकों पर विचार नहीं करते थे। पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस के अन्य दिग्गज नेताओं ने भाषाई पुनर्गठन पर जोर दिया। इसे क्षेत्रीय पहचान को सशक्त बनाने और विविध भाषाई समुदायों के बीच अपनेपन की भावना को बढ़ावा देने के साधन के रूप में देखा।

इस भाषाई दृष्टिकोण की जड़ें साल 1921 में भाषाई आधार पर कांग्रेस की क्षेत्रीय शाखाओं के पुनर्गठन में देखी जा सकती हैं, जिसने स्वतंत्रता के बाद के पुनर्गठन के लिए मंच तैयार किया। हालांकि, इस भाषाई पुनर्गठन का अनपेक्षित परिणाम राज्यों के भीतर जातीय, सांस्कृतिक और सांप्रदायिक पहचानों का सुदृढ़ीकरण रहा है, जो कभी-कभी एकीकृत राष्ट्रीय पहचान की व्यापक धारणा को चुनौती देता है।

लेकिन, महात्मा गांधी और काका कालेलकर जैसे नेताओं ने जमीनी स्तर पर शासन और सामुदायिक जुड़ाव को बढ़ावा देने के लिए छोटी प्रशासनिक इकाइयों की वकालत की। भाषा के आधार पर राज्यों के प्रसार ने राष्ट्र के सामने आने वाली प्रशासनिक और शासन चुनौतियों को यकीनन जटिल बना दिया है।

भारत के संविधान के प्रमुख निर्माता डॉ बीआर अंबेडकर ने प्रभावी शासन संरचनाओं की आवश्यकता को पहचाना, जो क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्रीय एकता के साथ संतुलित करती हों। भाषा के आधार पर राज्यों के प्रसार ने नि:स्संदेह भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार दिया है, लेकिन यह राष्ट्रीय एकीकरण और प्रशासनिक दक्षता के लिए व्यापक निहितार्थों के बारे में भी सवाल उठाता है।

अब जबकि भारत भाषाई पुनर्गठन की विरासत से जूझ रहा है तो इस प्रक्रिया की दोहरी प्रकृति पर विचार करना अति आवश्यक है। इसका उद्देश्य भाषाई पहचान को सशक्त बनाना है, ना कि अनजाने में राष्ट्र के भीतर विभाजन को बढ़ावा देना।

भाषाई रेखाओं के साथ भारत के नक्शे को फिर से तैयार करने वाले साल 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम का उद्देश्य एकता और सामंजस्य को बढ़ावा देना था। लेकिन, परिणाम इससे बहुत दूर रहे हैं। इसके बजाय, देश में विखंडन, संप्रदायवाद और विभाजनकारी राजनीति में उत्तरोत्तर वृद्धि देखी गई है।

पुनर्गठन जल्दबाजी में किया गया था, जिसमें भौगोलिक क्षेत्र, जनसंख्या आकार और प्राकृतिक संसाधनों जैसे तार्किक विचारों की अनदेखी की गई थी। केए. पणिक्कर की साल 1956 की एसआरसी रिपोर्ट ने छोटे व समान रूप से संतुलित राज्यों की सिफारिश की थी, जबकि राजाजी ने लिखा कि भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन स्वतंत्रता के बाद की सबसे बड़ी गलती थी। नेहरू द्वारा गठित साल 1953 की समिति के एक सदस्य ने आशंका जताई थी कि भाषा आधारित राज्य असहिष्णु, आक्रामक और विस्तारवादी होंगे।

भाषाई श्रेष्ठता की धारणा ने संकीर्णता और विभाजन को बढ़ावा दिया है। तीन-भाषा फॉर्मूला विफल हो गया है, और देश का भाषाई परिदृश्य 800 से अधिक भाषाओं का एक ताना-बाना बना हुआ है, जो सांप्रदायिक हितों को बढ़ावा देता है और विभाजनकारी आकांक्षाओं को जन्म देता है।

तेलंगाना और उत्तराखंड में देखी गई लगातार मांगें और बड़े पैमाने पर आंदोलन साबित करते हैं कि इसके चलते असंतोष और ढेर सारी राजनीतिक जटिलताएं हमारे तंत्र में मौजूद हैं। समय आ गया है कि राज्य पुनर्गठन के भाषाई आधार पर पुनर्विचार किया जाए और छोटी, अधिक प्रभावी प्रशासनिक इकाइयों पर विचार किया जाए जो स्थानीय समस्याओं से तुरंत निपट सकें। तभी भारत सच्ची एकता और सामंजस्य की ओर बढ़ सकता है।

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