स्वामी सहजानंद सरस्वती ब्रिटिशकालीन भारत का एक ऐसा नाम हैं जिन्हें उनके अपने मूल नाम नौरंग राय से न जानकर उनके कर्म से जाना जाता है। भारत के राष्ट्रवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और जन नेता से भी बढ़कर वह एक किसान नेता माने जाते हैं।
स्वामी सहजानन्द सरस्वती का उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा ग्राम में 22 फरवरी 1889 को एक निम्न मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुआ था। स्वामी सहजानंद सरस्वती की आरंभिक शिक्षा एक मदरसे से शुरू हुई। बाद में स्वामीजी ने वेद, वेदांग, उपनिषद आदि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया। एक विशालकाय अस्तित्व को समेटे स्वामीजी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस सच्चा राष्ट्रीय आंदोलनकारी मानते थे।
बचपन में ही वैराग्य की ओर झुकाव को देखकर नौरंग राय के पिता ने बाल्यकाल में ही उनकी शादी कर दी। लेकिन, नियति ने जो फैसला कर लिया था, उसे कैसे टाला जा सकता है। गृहस्थ जीवन शुरू होने के समय ही उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद, स्वामी सहजानंद सरस्वती ने साल 1909 में काशी पहुंचकर दशाश्वमेध घाट स्थित दण्डी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा ग्रहणकर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती बने। आजीवन दण्डी स्वामी होने के बावजूद एकांतवास करने और साधना के बजाय उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना।
वर्ष 1919 में बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु से उपजी संवेदना के कारण स्वामीजी राजनीति की ओर अग्रसर हुए, जिसके चलते उन्होंने ‘तिलक स्वराज्य फंड’ के लिए कोष इकट्ठा करना शुरू किया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन बिहार में गति पकड़ने लगा तो सहजानंद उसके केन्द्र में आ गए। उन्होंने चारों तरफ घूम-घूमकर अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। इन्हीं दिनों वह अंग्रेजी शासन काल में किसानों की दशा से भी परिचित हुए। वर्ष 1927 में स्वामीजी ने ‘पश्चिमी किसान सभा’ की नींव रखी, जिसके जरिये उन्होंने दुखी और शोषितों के लिए संघर्ष शुरू किया।
स्वामीजी ने किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य घोषित कर दिया। उन्होंने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्त कराने के लिए अभियान शुरू किया। उनकी बढ़ती सक्रियता को देखकर ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें जेल में डाल दिया।
साल 1936 के दौरान लखनऊ में उन्होंने ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ का संगठन तथा प्रथम अधिवेशन के लिए अध्यक्ष पद ग्रहण किया। वर्ष 1949 में महाशिवरात्रि के पर्व पर स्वामीजी ने पटना के समीप बिहटा में ‘सीताराम आश्रम’ स्थापित किया जो बाद में किसान आंदोलन का मुख्य केंद्र बना। वहीं से वह पूरे आंदोलन को संचालित करते रहे।
दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसान आंदोलन, मार्क्सवादी चिंतन, दलित समाज कल्याण एवं भारतीय समाज में व्याप्त विखंडनकारी विचारों के खिलाफ अद्वैतवादी दर्शन को दोबारा स्थापित किया। आदि गुरु शंकराचार्य से आरंभ होकर जो परंपरा बीच के काल में ठहर सी गई थी, स्वामीजी ने उस अध्यात्मिक चेतना का विस्तार भौतिक जीवन तक किया।
एक तरफ, स्वामी विवेकानंद ने अद्वैत दर्शन को राष्ट्रवादी चेतना से जोड़ने का काम किया था तो वहीं स्वामी सहजानंद सरस्वती ने उस अद्वैत धार्मिक चेतना को भारत के आर्थिक-सामाजिक चिंतन से जोड़कर मूर्तरूप प्रदान किया। स्वामीजी ने गीता के कर्म सिद्धांत को समाज के गरीब, पिछड़े, दलित, किसान व स्त्री की समानता का मुख्य आधार बना दिया।
स्वामीजी किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ डट जाने का स्वभाव रखते थे। गिरे हुए को उठाना अपना प्रधान कर्तव्य मानते थे। उन्होंने ‘झूठा भय’, ‘मिथ्या अभिमान’, ‘ब्राह्मण समाज की स्थिति’, ‘ब्रह्मर्षि वंश विस्तार’, ‘ब्राह्मण कौन?’, ‘भूमिहार ब्राह्मण परिचय’ व ‘कर्मकलाप’ जैसी रचनाएं लिखकर सामाजिक विभेद को पाटने का प्रयास किया एवं जाति व्यवस्था के आर्थिक पहलू पर ध्यान दिलाया।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय जब कम्युनिस्ट आंदोलन में भारतीय धर्म का विरोध किया जाने लगा और मजहब के आधार पर पाकिस्तान का समर्थन किया जाना शुरू हो गया तो यह स्वामीजी के लिए बेहद असहनीय था। उनका कम्युनिस्ट एवं फारवर्ड ब्लॉक से मोहभंग होने लगा। लेकिन, स्वामीजी तो महान रचयिता थे। उन्होंने ‘मेरा जीवन संघर्ष’, ‘किसान सभा के संस्मरण’, ‘अब क्या हो?’, ‘महारुद्र का महातांडव’, ‘किसानों के दावे’, ‘जंग और राष्ट्रीय आजादी’ व ‘गीता हृदय’ जैसी महान, विचारधारात्मक व आंदोलनकारी रचनाएं लिखीं। इन रचनाओं के जरिए स्वामीजी ने गांधीवाद, मार्क्सवाद एवं सामाजिक आंदोलन से भी आगे का चिंतन भारतीय अद्वैत चिंतन के साथ समावेश कर सामने रखा।
किसानों को शोषण से मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामीजी 26 जून 1950 को पंचतत्व में विलीन हो गये। उनके निधन के साथ ही भारतीय किसान आन्दोलन का सूर्य अस्त हो गया। उनके निधन पर दिनकर ने कहा था कि आज ‘दलितों का सन्यासी’ चला गया। उनके जीते जी जमींदारी प्रथा का अंत तो नहीं हो सका लेकिन आजादी मिलने के साथ ही जमींदारी प्रथा का कानून बनाकर इसे खत्म कर दिया गया। भारतीय चिंतनधारा में स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसा संत,योद्धा, विचारक एवं रचनाकार ध्रुव तारे के समान हमेशा प्रेरणास्रोत रहेंगे।
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