अब जरूरी हो चला है जल प्रदूषण और आराध्यों के अपमान को रोकना

भारत देश की संस्कृति प्राचीन मान्यताओं और संस्कारों से ओत-प्रोत रही है। यहां विभिन्न धार्मिक उत्सवों का आयोजन पूर्ण श्रृद्धा भाव एवं हर्षोल्लास के साथ किया जाता है।

इस क्रम में, देशभर में गणपति का उत्सव गणेश चतुर्थी एवं महापर्व नवम सिद्धिदात्री मां दुर्गा के नवरात्रों पर प्रतिवर्ष भक्तगण उनको प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करते हैं और अपने परिवार की सुख-शांति के लिए उनसे प्रार्थना करते हैं।

भगवान गणेश, जहां एक ओर रिद्धि-सिद्धि के स्वामी हैं वहीं दूसरी ओर मां दुर्गा शक्ति प्रदायिनी हैं और उनके अनेकों रूप, धन, शक्ति व विद्या प्रदान करते हैं। यदि भक्तगण सच्चे हृदय से इन शक्तियों का स्मरण करते हैं तो उनके समस्त पापों व कष्टों का निवारण होता है। इनकी उपासना के लिए मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध होना अतिआवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर अथवा पूजा में आंशिक त्रुटि होने पर भी मनुष्य को इनके कोप का भाजन बनकर अनेक कष्ट उठाने पड़ सकते हैं।

प्रथा के अनुसार गणेश चतुर्थी व नवरात्रों में भक्तगण, भगवान गणेश और मां दुर्गा की मूर्तियों को घरों में स्थापित करते हैं। इनकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। फिर, भक्तगण अपने संकल्प के अनुसार उनकी उपासना करते हैं और उनकी विधिवत पूजा-अर्चना से शनै-शनै उन मूर्तियों में अलौकिक शक्ति व जीवन का संचार होना प्रारम्भ हो जाता है। भक्तजनों द्वारा संकल्प दिवस पूर्ण होने के पश्चात इन प्रतिष्ठित शक्तिवान मूर्तियों को नदी, समुद्र अथवा गांव के तालाब आदि में विसर्जित कर दिया जाता है। और, यहीं से एक बड़ी समस्या शुरू होती है।

यह अत्यधिक आश्चर्य का विषय है कि भक्त लोग जिस मूर्ति की भजन कीर्तन अथवा स्तुति द्वारा प्राण प्रतिष्ठा करते हैं और उस शक्तिवान मूर्ति में ईश्वर का वास हो जाने के बाद उसको नदी, समुद्र अथवा तालाब यूं ही प्रवाहित कर दिया जाता है। यहां से फिर हमारे आराध्यों की प्राण-प्रतिष्ठित मूर्तियों की अकल्पनीय दुर्दशा शुरू होती है।

जिन मूर्तियों की हम भक्तों ने पूर्ण श्रद्धा के साथ पूजा की थी, वे अब कचरे के ढेर में बदलना शुरू हो जाती हैं। इतना ही नहीं, जिन जल इकाइयों में इनको प्रवाहित किया जाता है, वे भी इन मूर्तियों पर लगे पेंट के केमिकल से प्रदूषित होने लगते हैं। इससे, उस जल में विचरण करने वाले जीव-जंतु मरने लगते हैं। जब यही जल खेतों में सिंचाई के लिए जाता है तो उस दूषित जल से फसलों को भी अत्यधिक हानि पहुंचती है। उस जल एवं जल से सिंचित फसलों पर निर्भर मनुष्य कितने ही रोगों से ग्रसित होने लगते हैं, इसका अनुमान लगाना बेहद कठिन है।

इसके इतर, जब ये मूर्तियां जल में प्रवाहित होने पर खंडित हो जाती हैं, तो सफाई करने वाले लोग इनको ट्रकों में ले जाकर कूड़े के ढेर में फेंक देते हैं। मूर्तियों की इस दुर्दशा को देखकर हृदय का विचलित होना स्वाभाविक है। 

यहां इरादा किसी भी भक्त की भावनाओं को आहत करना नहीं है, परन्तु जब अपने ईश्वर की प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों की ऐसी दुर्दशा होती हुए दिखती है तो हृदय को अत्यधिक वेदना पहुंचती है।

इस समस्या को लेकर यदा-कदा कई आंदोलन होते दिखते तो हैं, लेकिन अभी तक इस समस्या का सही समाधान निकला नहीं है। आने वाले दिनों में महाकुंभ का आयोजन होने वाला है। पूरा संत-समाज इस दौरान एक जगह पर एकत्रित होगा। हर बार की तरह यहां धर्म और समाज से जुड़े कई फैसले लिए जाएंगे। उम्मीद है कि बड़े-बड़े ज्ञानी और संत समाज हमारे आराध्य के इस अनादर को रोकने के लिए आगे आएंगे और जनता को उचित राह दिखाएंगे।

(लेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और यहां व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं)

Related Items

  1. वैश्विक व्यापार प्रतिस्पर्धा में बढ़ रही है भारत की भूमिका

  1. चुनाव हुए पूरे, अब श्री लंका से ‘कच्चतिवू’ वापस ले भारत...

  1. सहायता और समृद्धि के मूल्यों को सहेजता है भारत का सहकारी आंदोलन



Mediabharti