रेलवे द्वारा आगरा के बीचोबीच निजी बिल्डरों को भूमि के विशाल भूखंडों की नीलामी करने का निर्णय न केवल दुर्भाग्यपूर्ण चूक है बल्कि यह पर्यावरणीय विवेक और शहरी जिम्मेदारी का एक निर्विवाद अपमान भी है।
आर्थिक विकास की आड़ में उठाया गया यह कदम, यातायात की भीड़, शहरी फैलाव और हमारे शहरों को प्रभावित करने वाले प्रदूषण के व्यापक संकट के बारे में पर्यावरणविदों द्वारा व्यक्त की गई वास्तविक चिंताओं को दरकिनार करता है।
जब पहले से ही, ताज सिटी तेजी से हो रहे शहरीकरण के हानिकारक प्रभावों से जूझ रहा है तब यह एक महत्वपूर्ण भूमि बिल्डरों को आलीशान फ्लैट और विला बनाने के लिए दे दी गई है। इस भूमि को एक बहुत खुले शहरी जंगल में बदला जा सकता था। शहरी नियोजन की यह एक गंभीर विफलता है। यह लाभ के प्रति झुकी प्राथमिकताओं के बारे में बहुत कुछ कहता है। यह योजनाबद्ध कंक्रीट का जंगल न केवल आगरा के सौंदर्य को बाधित करेगा बल्कि यह शहर के यातायात और वायु गुणवत्ता की अव्यवस्था को बढ़ाते हुए इसके पर्यावरणीय परिदृश्य को मौलिक रूप से बदल देगा।
पर्यावरणविदों ने लंबे समय से चेतावनी दी है कि इस तरह की परियोजनाओं से वाहनों की बाढ़ आ जाएगी। इससे आगरा की पहले से ही भरी हुई सड़कें जाम की चपेट में आ जाएंगी। जनसंख्या घनत्व में अनुमानित वृद्धि सीमित शहरी बुनियादी ढांचे पर और अधिक दबाव डालेगी, जिससे भीड़भाड़ बढ़ेगी। रिवर कनेक्ट कैंपेन कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं कि जो कोई भी शहर की सड़कों पर घूमा है, वह हॉर्न की आवाज़, वातावरण को अवरुद्ध करने वाले धुएं और शहर की आत्मा को दबाने वाले वाहनों की भारी मौजूदगी को जानता है।
यमुनाभक्त चतुर्भुज तिवारी कहते हैं कि आगरा की पारिस्थितिक संवेदनशीलता, विशेष रूप से ताज ट्रेपेज़ियम ज़ोन के भीतर, रेलवे के निर्णय को और भी अधिक निंदनीय बनाती है। यह क्षेत्र पहले से ही प्रदूषण से घिरा हुआ है। ताजमहल खुद अनियंत्रित शहरी विस्तार के साथ होने वाले पर्यावरणीय क्षरण का शिकार है।
पर्यावरण योद्धा डॉ शरद गुप्ता कहते हैं कि हरियाली के बजाय कंक्रीट के निर्माण को प्राथमिकता देना न केवल आगरा के ऐतिहासिक महत्व बल्कि इसके निवासियों के स्वास्थ्य के प्रति भी लापरवाही का संकेत है। रेलवे का यह निर्णय आर्थिक विकास को पारिस्थितिकी संरक्षण के साथ संतुलित करने वाले सतत विकास प्रथाओं को लागू करने में व्यापक प्रणालीगत विफलता को दर्शाता है।
आदर्श रूप से, शहर के योजनाकारों और नीति निर्माताओं को ऐसे अभिनव समाधानों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो हरित स्थानों और शहरी जैव विविधता को बढ़ावा देते हैं। इससे आगरा के सभी निवासियों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि हो।
जैव विविधता विशेषज्ञ डॉ मुकुल पांड्या कहते हैं कि सच में, यह केवल हरित स्थानों का खत्म होना ही नहीं है, जो दांव पर लगा है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए पर्यावरण की रक्षा करने की सामूहिक जिम्मेदारी भी है। आगरा केवल लाभ द्वारा निर्धारित भविष्य से बेहतर का हकदार है। एक ऐसा भविष्य जहां हरियाली एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ सह-अस्तित्व में हो सके।
कड़वी सच्चाई यह है कि आगरा जैसे अधिकांश भारतीय शहर अभूतपूर्व शहरीकरण के हमले का सामना कर रहे हैं। सामाजिक विश्लेषक प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि यदि दीर्घकालिक समग्र दृष्टि के साथ उचित शहरी नियोजन नीतियों की रणनीति नहीं बनाई गई, तो शहर ढह जाएंगे, पहले से ही अधिकांश शहरी केंद्र घेट्टोकरण देख रहे हैं। आगरा, मथुरा, फिरोजाबाद, हाथरस सहित ताज ट्रैपेज़ियम ज़ोन के शहर तनाव में हैं और फटने का इंतज़ार कर रहे हैं।
रिवर कनेक्ट कैंपेन के शहतोश गौतम कहते हैं कि शहरों का बेतरतीब विकास, पर्यावरण कानूनों को दरकिनार करना और निजी क्षेत्र द्वारा संचालित भूमि विकास उद्योग द्वारा मौजूदा मास्टर प्लान ने देश में समग्र आवास परिदृश्य में संकट पैदा कर दिया है।
लोक स्वर अध्यक्ष राजीव गुप्ता के अनुसार, भारतीय शहर तेजी से बढ़ रहे हैं क्योंकि ग्रामीण इलाकों से बड़े पैमाने पर पलायन ने मौजूदा बुनियादी ढांचे के वास्तविक पतन का कारण बना है। चूंकि, भारत की 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, इसलिए गांवों को नागरिक सुविधाओं का विस्तार करके और रहने की स्थिति में सुधार करके शहरीकृत करने की आवश्यकता है। अन्यथा, ग्रामीण इलाकों से शहरी केंद्रों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन बेरोकटोक जारी रहेगा।
आज के नगर नियोजकों ने शहरीकरण के प्रति अपने असंतुलित दृष्टिकोण से शहरी परिदृश्य को बिगाड़ दिया है। इसे विभिन्न हित समूहों द्वारा पुनर्परिभाषित और पुनर्निर्मित किया जा रहा है। पर्यावरणविद डॉ देवाशीष भट्टाचार्य बताते हैं कि निजी क्षेत्रों और राज्य एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी, साथ ही निहित स्वार्थों के अनुरूप भूमि उपयोग पैटर्न में बदलाव सतत विकास के लिए हानिकारक साबित हो रहे हैं। भूमि हड़पने वालों के कारण कई शहरों के 'हरे फेफड़े' गायब हो गए हैं।
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