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भारत की सुप्रीम कोर्ट को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरेदार माना जाता है। महिलाओं के अधिकार, समलैंगिक बराबरी और पर्यावरण सुरक्षा जैसे ऐतिहासिक फ़ैसलों ने अदालत की साख मज़बूत की है। लेकिन, हाल के बरसों में कई फ़ैसलों ने यह बहस छेड़ दी है कि अदालतें अपने दायरे से बाहर निकलकर नीति और प्रशासन का काम करने लगी हैं। न्यायिक सक्रियता पर एक बहस 1993 में भी हुई थी जब जस्टिस कुलदीप सिंह बेंच ने एमसी मेहता की याचिका पर ताज ट्रिपेजियम जोन में प्रदूषणकारी उद्योगों पर तमाम बंदिशें लगा दी थीं...

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सिर्फ आंकड़ों, डेटा और तुलनात्मक विश्लेषणों से अगर नरेंद्र मोदी सरकार का मूल्यांकन किया जाए तो पिछले 11 वर्ष भारत की विकास यात्रा के इतिहास का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। हजारों वर्षों में ऐसी कोई राजनैतिक व्यवस्था नहीं आई जिसने इतनी बड़ी आबादी को जीने की उम्मीद दी, सहारा दिया और मुख्यधारा से जुड़ने के अवसर दिए...

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कभी गरुड़-सा ऊंचा उड़ने वाला भारत आज अपनी ही टूटी-फूटी सीमाओं में कैद होकर रह गया है। यह वही धरती है जिसने अफगानिस्तान से लेकर बर्मा तक राज किया, लेकिन आज पाकिस्तान और चीन हमारी ज़मीन निगल रहे हैं और हम संयुक्त राष्ट्र की फाइलों में न्याय खोज रहे हैं।

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आईटी टेकी सुरेश भाई को अपनी मंगेतकर शीला की सालगिरह पार्टी में गिफ्ट के साथ बसंत विहार से दिल्ली के दरियागंज इलाके के एक रेस्टोरेंट में पहुंचना था। जोशभरे उत्साह के साथ जब वह रेस्टोरेंट में दाखिल हुए तो महफिल पर पर्दा गिर चुका था। सुरेश ने ट्रैफिक जाम को दोषी ठहराया लेकिन शीला ने एक न सुनी और पुराने दोस्त अभिनव के साथ निकल गई। सच में, ट्रैफिक जाम ने तरह तरह के खट्टे-मीठे अनुभव लोगों को दिए हैं...

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विपक्षी दलों के नेताओं की मानें तो भारत गर्त में जा रहा है। राहुल गांधी हर दिन मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगाते रहे हैं कि अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है। सही स्थिति क्या है, यह जानने के लिए साल 2015 से पूर्व और 2025 तक के आंकड़ों का विश्लेषण करने से पता लगता है कि तमाम दिक्कतों के बावजूद भारत की विकास यात्रा सही गति से सही दिशा की तरफ अग्रसर है...

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गरीबी के खिलाफ जंग में मनरेगा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अगर 25 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठे हैं, तो ग्रामीण रोजगार योजनाओं ने इस क्रांति को सफल अंजाम दिया है, बेशक क्रियान्वयन बेहतर और भ्रष्टाचार मुक्त हो सकता था...

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