पर्यावरण / मौसम

दिल्ली की जाम नालियां, मुंबई के कचरे से पटे समुद्र तट, हिमालय की पगडंडियों पर बिखरे रैपर, वाराणसी और वृंदावन के घाटों पर तैरती बोतलें और माला… आज भारत का हर कोना प्लास्टिक से घिरा है। यह जहरीला बोझ मिट्टी को बंजर बना रहा है, नदियों का दम घोंट रहा है, जानवरों की जिंदगी छीन रहा है और पवित्र स्थलों की आभा धूमिल कर रहा है...

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हिमालय की ऊंचाइयों में, जहां बादल बर्फ से ढकी चोटियों के ऊपर तैरते रहते हैं, वहां हवा के साथ एक खतरनाक प्रदूषण फैल रहा है। एक नए वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि बादल, जिन्हें पहले सबसे शुद्ध पेयजल का स्रोत माना जाता था, निचले प्रदूषित इलाकों से जहरीली धातुओं को धरती के सबसे ऊंचे और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्रों तक पहुंचा रहे हैं।

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आगरा, मथुरा और फिरोजाबाद जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध जिलों को समेटे बृज क्षेत्र की हरी-भरी विरासत पर विलायती बबूल का एक मौन और गंभीर खतरा मंडरा रहा है...

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साल 2025 हिंदुस्तान के लिए उम्मीद की किरण लेकर आया है क्योंकि दक्षिण पश्चिमी मानसून अपने वक़्त से पहले ही आ चुका है। इससे मुल्कभर में बहुत ज़रूरी राहत मिलने की उम्मीद है।

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सुप्रीम कोर्ट की सख़्त टिप्पणी और एनजीटी की चेतावनियां अब वक़्त की पुकार हैं। हरे-भरे पेड़ों की कटाई पर नकेल कसना ज़रूरी हो गया है। शहरों के सीने में धड़कते ये पेड़ अब कंक्रीट की हवस के शिकार हो रहे हैं। वृंदावन, आगरा, हैदराबाद और मैसूर जैसे ऐतिहासिक शहरों में, जहां हरियाली कभी इबादत थी, आज वही पेड़ इंसानी लालच की ज़द में हैं...

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एक समय था जब गांवों की शांत सुबह से लेकर शहरों की शोरगुलभरी चहल-पहल तक, गौरैया हवाओं को अपनी खुशनुमा चहचहाहट से भर देती थीं। इन नन्हें पक्षियों के झुंड, बिन बुलाए मेहमान होने के बावजूद स्वागतयोग्य व अविस्मरणीय यादें बनाते थे। लेकिन, समय के साथ, ये नन्हीं दोस्त हमारी जिंदगी से गायब हो गई हैं। कभी बहुतायत में पाई जाने वाली घरेलू गौरैया अब कई जगहों पर एक दुर्लभ दृश्य और रहस्य बन गई है।

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