सुख और संतोष की वर्षा करती है बेलौन वाली सर्व मंगला देवी

बुलंदशहर के बेलौन गांव में सर्व मंगला देवी को समर्पित बेलौन मंदिर में देवी का दर्शन करने प्रतिदिन हजारों लोग आते हैं। सर्व मंगला देवी को सुख की देवी माना जाता है। सालभर यात्रियों की भीड़ यहां लगी रहती है। कार्तिक और चैत्र माह के नवरात्र में यहां विशेष आयोजन होते हैं। इस दौरान सुख, संतोष की तलाश में यहां श्रद्धालुओ का तांता लगा रहता है।

मंदिर के नामकरण के पीछे पुजारी सोमदत्त बताते हैं कि पूर्व में यह पूरा क्षेत्र बेल वृक्षों की बहुतायत वाला था। इस वजह से पहले बिलोन और बाद में अपभृंश होकर 'बेलौन' कहलाने लगा।

मान्यता है कि शुक्ल पक्ष की अष्टमी को यहां दर्शन करने से अभीष्ठ फल की प्राप्ति होती है। मंदिर के समीप ही गंगा नदी के राजघाट, कलकतिया एवं नरौरा घाट होने से यहां भक्तों का आगमन निरंतर बना रहता है।

मां बेलौन भवानी के प्रादुर्भाव को लेकर कोई ऐतिहासिक दस्तावेज तो मौजूद नहीं है, लेकिन जनश्रुति एवं पौराणिक दृष्टि से मां बेलोन को देवाधिदेव महादेव की अर्द्धांगिनी पार्वती का स्वरूप माना जाता है। इसे लेकर दो अलग-अलग दंत कथाएं सामने आती हैं।

पहले प्रसंग के अनुसार, भगवान शिव और पार्वती एक बार पृथ्वी लोक के भ्रमण पर निकले। भ्रमण करते-करते वह गंगा नदी के पश्चिमी छोर के पास स्थित बेल के वन से घिरे बिलबन क्षेत्र में आ गए। यहां पार्वती को एक शिला दिखाई दी। वह इस पर बैठने के लिए लालायित हुईं। भगवान शिव की अनुमति मिलने पर वह शिला पर बैठ गईं। मां पार्वती के विश्राम करने पर भगवान शिव भी पास ही एक वटवृक्ष के पास आसन लगाकर बैठ गए। बताते हैं कि इसी मध्य वहां एक बालक आया और वह शिला पर बैठकर आराम कर रहीं मां पार्वती के पैर दबाने लगा। यह देख आश्चर्य-मिश्रित भाव व्यक्त करते हुए पार्वती ने महादेव से पूछा कि यह बालक कौन है? तब महादेव ने राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पिता के अपमानजनक व्यवहार से दुखी होकर वह जब पूर्व जन्म में तुम्हारी देह को लेकर आकाश मार्ग से गुजर रहे थे, तब सती के शरीर से खून की कुछ बूंद इस शिला पर गिरीं। यह बालक उसी का अंश है। यह बालक तभी से आपके दर्शन की इच्छा के साथ उपासना कर रहा था। आज तुम्हारे दर्शनों से इसकी उपासना पूरी हो गई। इससे भाव-विह्वल होकर मां पार्वती ने बालक को गोद में उठा लिया। वह इस बालक के साथ कुछ समय तक यहां रहीं। उसी समय भगवान शिव ने कहा कि अब से यह शिला साक्षात तुम्हारा स्वरूप होकर मां सर्व मंगला देवी के नाम से विख्यात होगी। जो व्यक्ति शुक्ल पक्ष की बारह अष्टमी तुम्हारे दर्शन करेगा, उसे मनोवांछित फल प्राप्त होगा। यह बालक लांगुरिया के नाम से जाना जाएगा। इसके दर्शन से ही मां सर्व मंगला देवी की यात्रा पूरी होगी।

जब मां पार्वती यहां से चलने को हुईं तो उनके शरीर से एक छायाकृति निकली और शिला में समा गई जिससे शिला एक मूर्ति के रूप में बदल गई। इसके लगभग 250 गज दूर जहां भगवान शिव ने विश्राम किया था। वह स्थान वटकेश्वर महादेव मंदिर हो गया। यह प्रसंग सतयुग का है।

बताया जाता है कि द्वापर में राक्षसों के बढ़ते अत्याचार से लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। ब्रज से लगे कोल क्षेत्र, वर्तमान में अलीगढ़, के कोल राक्षस ने आतंक बरपा रखा था। आसपास की जनता ने भगवान कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता दाऊ बलराम से कोल के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। इसके बाद बलराम ने कोल राक्षस को मार दिया। कोल का वध करने के बाद बलराम ने रामघाट पर गंगा में स्नान किया। इस दौरान उन्हें दैवीय शक्ति के प्रभाव की अनुभूति हुई। इसके सम्मोहन में बलराम विलवन क्षेत्र में पहुंच गए। यहां देवी के दर्शन की इच्छा के साथ उन्होंने घोर तप किया और इससे प्रसन्न होकर मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें दर्शन दिए। देवी ने बलराम से कहा कि वह उनकी खंडित शक्ति को पूर्ण प्रतिष्ठित करें। इसके बाद बलराम ने मां सर्वमंगला देवी के दर्शन को पूर्ण प्रतिष्ठित किया।

जनश्रुति के अनुसार मां सर्वमंगला देवी के दर्शन की अभिलाषा से बलराम ने चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को तपस्या शुरू की और अगली चैत्र शुक्ल भी अष्टमी को मां ने उन्हें दर्शन देकर तपस्या का समापन कराया। तभी से चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां सर्वमंगला देवी के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है।

दूसरी कथा के अनुसार, एक बार जहांगीर शिकार खेलते हुए इसी क्षेत्र में आया। उसके साथ उसका सेनापति अनीराम बड़बूजर भी था। अचानक एक शेर ने जहांगीर पर आक्रमण कर दिया। जहांगीर को शेर से बचाने के लिए बड़बूजर ने अपनी जान की परवाह न कर शेर के मुंह में अपना हाथ डाल दिया। पास ही खड़ा शहजादा खुर्रम यह घटना देख रहा था वह सेनापति की जिंदादिली से काफी प्रभावित हुआ। उसने सेनापति को संकट में फंसा देखकर अपनी तलवार से शेर पर पीछे से वार कर उसे मार डाला। बाद में जहांगीर ने सेनापति की बहादुरी से खुश होकर उसे 1556 गांवों की जमींदारी ईनाम में दी। बिलवन क्षेत्र भी इसी में शामिल था। समय चक्र फिर बदला। जहांगीर के सेनापति बड़बूजर के वंशज राव भूपसिंह बड़े धर्मपरायण स्वभाव के हुए। उन्होंने इसी क्षेत्र में अपनी हवेली बनवाई और पूजा पाठ में रम गए। एक दिन मां सर्वमंगला देव ने उनहें स्वप्न दिया कि वह अमुक स्थान में जमीन में दबी है। अतः उनकी मूर्ति जहां है, वहां खुदाई करवाकर उसका भवन बनवा दें। राव भूपसिंह को स्वप्न तो याद रहा। लेकिन, वह स्थान याद नहीं रहा जहां मां ने अपनी मूर्ति होने की जानकारी दी थी। अब तो राव भूपसिंह की बेचैनी बढ़ने लगी। जब पीड़ा असहनीय हो गई तो उन्होंने बनारस के विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर अपनी समस्या बताई। ब्राह्मणों ने राव को इसके लिए शतचंडी यज्ञ करने का सुझाव दिया। राव तुरंत तैयार हो गए। शतचंडी यज्ञ हुआ और यजमान बने राव ने रात्रि विश्राम यज्ञ प्रांगण में ही किया। रात्रि में मां सर्वमंगला देवी ने उन्हें फिर स्वप्न दिया और वह स्थान बताया जहां उनकी प्रतिमा दबी थी। सुबह होते ही राव ने ब्राह्मणों को स्वप्न की जानकारी दी और ब्राह्मणों के निर्देश पर राव भूपसिंह ने मां द्वारा बताए स्थान पर खुदाई शुरू कराई तो वहां मां की इस मूर्ति को देखकर राव ने इसे अपनी हवेली के बाहर लगाने का मन बनाया।

मजदूरों को मूर्ति सुरक्षित निकालने का हुक्म दिया। मजदूरों ने काफी कोशिश की मगर हार थककर बैठ गए। मूर्ति के एक पैर का कोई ओर छोर नहीं मिला। तब मां ने राव को बताया कि उनका एक पैर पाताल में है। इसलिए, मेरा इसी स्थान पर भवन बनवाओ और इसी तरह मां सर्वमंगला देवी के मंदिर का निर्माण हुआ। बताया जाता है कि राव भूप सिंह के वंशज कल्याण सिंह के कोई संतान नहीं हुई। इससे वह काफी विचलित हुए और बनारस के विद्वान दर्माचार्यों की शरण ली। धर्माचार्यों ने कहा कि जब तक मैया का चढ़ावा खाना बंद नहीं करोगे, संतान सुख असंभव है। कल्याण सिंह ने इस पर तुरंत अमल किया और मैया की पूजा सेवा के लिए दो ब्राह्मणों को दायित्व सौंप दिया। इसी के बाद राव कल्याण सिंह को संतान की प्राप्ति हुई।

बेलौन वाली मैया के प्रांगण में हर साल बलिदान दिवस भी मनाया जाता है। यह चैत्र शुक्ल की त्रयोदश एवं आश्विन माह के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। करीब तीन दशक पूर्व यहां बकरे की बलि दी जाती थी। चूंकि, पूजा अर्चना का दायित्व संभालने वाले ब्राह्मणों ने बलिपूजा से खुद को शामिल होने से असमर्थता व्यक्त कर दी थी इसलिए इसके लिए अलग से व्यक्ति की नियुक्ति की गई। बाद में जीव हत्या का विरोध होने पर इस बलि पर रोक लगा दी गई और उसकी जगह नारियल ने ले ली।

वर्तमान में बेलौन मंदिर नरौरा शहर से लगभग पांच किमी और अलीगढ़ के औद्योगिक शहर से लगभग 60 किलोमीटर दूर है। मंदिर पूजा और दर्शन के लिए सुबह छह बजे से दोपहर 12 बजे तक और शाम को पांच बजे से शाम को आठ बजे तक खुला रहता है। यह मंदिर अपने होली उत्सव के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां होली को टेसू के फूलों के साथ मनाया जाता है।

मंदिर के सेवायत नरेश वशिष्ठ बताते हैं कि शारदीय नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि के बाद आने वाली त्रयोदशी तिथि के दिन माता का जन्मदिन मनाया जाता है। माता के जन्मदिन के दौरान यहां माता की झांकियां निकाली जाती है और बड़ स्तर पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

यहां के स्थानीय लोग माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद अपने घर जाने से पहले पहले यहां मां के दरबार में हाजरी लगाते हैं। यहां माता को सभी 16 श्रृंगार की वस्तुएं चढ़ाई जाती हैं। भक्तों की हर मुराद पूरी करती हैं माता यहां आने वाले हर भक्त की मुराद माता पूरी करती हैं। जो भी व्यक्ति सच्चे मन से माता के दर्शनों के लिए यहां आता है, माता उसे मनोवांछित वरदान प्रदान करती हैं।

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