न्यायिक अतिक्रमण या फिर मज़बूरी की दख़लअंदाज़ी..!

हाल के दिनों में भारत की न्यायपालिका के फ़ैसलों और टिप्पणियों ने एक ख़तरनाक रुझान पैदा कर दिया है। अदालतें कानून की व्याख्या करने की बजाय, अब नैतिकता के फ़तवे देने लगी हैं, समाज को सुधारने का दावा करने लगी हैं, और यहां तक कि सरकारों को चलाने के तरीके भी बताने लगी हैं। क्या यह न्यायिक सक्रियता है या फिर साफ़-साफ़ न्यायिक अतिक्रमण? उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसी मुद्दे पर सवाल उठाए हैं, और उनकी चिंता बिल्कुल वाजिब है। 

इसी महीने, सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था। कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल किसी बिल पर एक महीने के अंदर फ़ैसला नहीं करता है, तो वह बिल अपने-आप पास माना जाएगा। राष्ट्रपति के लिए यह समय सीमा तीन महीने रखी गई। यह फ़ैसला अनुच्छेद 142 के तहत दिया गया, जो कोर्ट को ‘पूर्ण न्याय’ देने का अधिकार देता है। 

लेकिन, सवाल यह है कि क्या अदालतों को यह अधिकार है कि वे संविधान में लिखे हुए नियमों को बदल दें? राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास संविधान द्वारा दी गई विवेकाधीन शक्तियां हैं। अगर अदालतें उन्हें समय सीमा देने लगेंगी, तो फिर संविधान का मतलब ही क्या रह जाएगा? 

उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सही कहा कि आज कुछ जज ऐसे हैं जो कानून बनाते हैं, सरकार चलाते हैं, और संसद से ऊपर हो गए हैं...! लेकिन, उन पर कोई कानून लागू नहीं होता! यह कोई मामूली बात नहीं है। अगर अदालतें ऐसे फ़ैसले देती रहीं, तो एक दिन लोकतंत्र की बुनियाद ही हिल जाएगी। वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं, अदालतें अब ‘उपदेशक’ भी बन गई हैं।

सिर्फ़ कानूनी फ़ैसले ही नहीं, अब तो जज महोदय समाज को नैतिकता का पाठ भी पढ़ाने लगे हैं। कुछ वक़्त पहले दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के घर से जली हुई नोटें मिलने का मामला सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच शुरू की। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह अदालत का काम है? क्या पुलिस और प्रशासन इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं? 

इसी तरह, पहले भी अदालतों ने यौन संबंध, लव जिहाद, बलात्कार, पोर्नोग्राफी, शादी-ब्याह, धर्म, और संस्कृति पर अपनी राय थोपने की कोशिश की है। कुछ लोग इसे ‘प्रगतिशील’ कहते हैं, लेकिन असल में यह लोकतंत्र के लिए ख़तरा है। अगर जज ही सब कुछ तय करेंगे, तो फिर जनता द्वारा चुने हुए नेताओं की क्या भूमिका रह जाएगी? 

साल 2015 में संसद ने नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन बनाने के लिए एक कानून पास किया था। इसका मक़सद था कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाई जाए। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को ही रद्द कर दिया और कहा कि जजों की नियुक्ति का अधिकार सिर्फ़ ‘कॉलेजियम सिस्टम’ के पास रहेगा। यह फ़ैसला संसद की अवमानना थी। धनखड़ ने ठीक ही कहा कि यह एक ‘अलोकतांत्रिक वीटो’ था। अगर न्यायपालिका खुद को संसद और सरकार से ऊपर समझने लगे, तो फिर लोकतंत्र का क्या होगा? 

विधि जानकार कहते हैं कि अदालतों को अपनी हद और मर्यादाएं मालूम होनी चाहिए। न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधे होने का कुछ तो अर्थ है। न्यायपालिका का काम कानून का पालन करवाना है, न कि खुद कानून बनाना या सरकार चलाना। अगर जज लगातार नैतिक उपदेश देते रहेंगे, सरकार के काम में दख़ल देते रहेंगे, और संसद के फ़ैसलों को रद्द करते रहेंगे, तो एक दिन लोकतंत्र की जगह ‘जजतंत्र’ आ जाएगा। धनखड़ की चेतावनी गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। "जब एक संस्था दूसरी संस्था के काम में दख़ल देती है, तो यह संविधान के लिए ख़तरा है।"

भारत को दार्शनिक राजाओं की नहीं, बल्कि ऐसे जजों की ज़रूरत है जो संविधान की मर्यादा को समझें, लोकतंत्र का सम्मान करें, और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें। वरना, आने वाला वक़्त भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत मुश्किल लेकर आएगा। हमें फैसला लेना होगा कि अदालतें कानून की व्याख्या करें या फिर देश चलाएं?

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