लोकतंत्र को बेहतर तरीके से परिभाषित करेगा महाराष्ट्र चुनाव

हरियाणा चुनाव ने भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था से परिचय कराया और अब महाराष्ट्र का चुनाव भारतीय लोकतंत्र को और बेहतर तरीके से परिभाषित करेगा।

महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों पर उम्मीदवारी के लिए कुल 4140 प्रत्याशी अपना भाग्य आजमा रहे हैं। इनमें से अधिकांश प्रत्याशी को इसका संज्ञान है कि वे इस चुनाव में विजयश्री नहीं प्राप्त कर पाएंगे लेकिन, किसी न किसी दल के प्रत्याशी को चुनाव में पराजित होने में एक आवश्यक कारक अवश्य बनेंगे। इनके चुनावी प्रचार का सम्पूर्ण व्यय भी कोई न कोई पार्टी या उसका कोई धड़ा जरूर उठा रहे होंगे और साथ ही, पार्टी के प्रति इस ‘निष्ठा’ के प्रदर्शन के लिए इनको इस कुछ दिन के परिश्रम का ‘विशेष’ पारितोषिक भी मिलेगा।

माना जा रहा है कि किसी भी अन्य प्रदेश की अपेक्षा महाराष्ट्र के चुनावी प्रचार में सर्वाधिक धन व्यय हो रहा है। सम्भवतया, छुपे तौर पर यहां व्यय करने की कोई सीमा शेष नहीं बची है। राजनीतिक जानकारों का तो यहां तक कहना है कि वहां की कुछ प्रतिष्ठित सीटों पर 100 करोड़ रुपये तक का व्यय होना भी सम्भव है। इस पूर्वानुमान में कोई आश्चर्य भी नहीं है, क्योंकि मुम्बई भारत की आर्थिक राजधानी है जहां पर भारत के अत्यधिक सम्पन्न व्यवसायी रहते हैं। अतः अपनी पसन्द के उम्मीदवारों को विजयश्री दिलाने के लिए वे उनके चुनावी प्रचार का सम्पूर्ण व्यय वहन करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि वे येन-केन-प्रकारेण सफलता प्राप्त जरूर करें।

महाराष्ट्र के चुनाव में मुख्यतः दो गठबंधन सत्ता प्राप्त करने के लिए संघर्षरत हैं। इनमें पहला है - भाजपा, एकनाथ शिंदे और अजीत पवार का महायुति गठबंधन। उपरोक्त गठबंधन में सर्वाधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि अपनी-अपनी पार्टी के दो शीर्ष नेता स्वयं मुख्यमंत्री के पद को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं। भाजपा के देवेन्द्र फडणवीस पार्टी और संघ के कर्मठ कार्यकर्ता हैं। इसलिए, संभवत: संघ परिवार तो उनको ही मुख्यमंत्री के रूप में देखना पसंद करेगा।  दूसरे नेता - वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे हैं, जो चुनावों के पश्चात पुनः मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, परन्तु वर्तमान परिस्थिति में ऐसा होना प्रतीत नहीं हो रहा है। चूंकि भाजपा, पहले गठबंधन की सबसे बड़ी घटक है, अतः वह स्वयं का ही मुख्यमंत्री देखना चाहेगी। गठबंधन के तीसरे नेता अजीत पवार का भविष्य इन चुनावों के पश्चात तय होगा। यह अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा उनके साथ कंधे से कंधा मिलाएगी अथवा वहां की राजनीति से उखाड़ कर फेंक देगी।

दूसरा गठबंधन कांग्रेस तथा शरद पवार व उद्धव ठाकरे की पार्टियों का है। इस गठबंधन ने फिलहाल तो सर्वसम्मति से अपना मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को ही स्वीकार किया है। लेकिन, यदि इस गठबंधन का कोई और घटक ज्यादा सीटें लाया तो ताज के लिए छीनाझपटी होना तय है।

अब इनमें से कौन विजयश्री प्राप्त करके सत्तासीन होगा, यह कहना अभी बहुत मुश्किल है। परन्तु, इतना अवश्य है कि चुनाव आम आदमी की पहुंच से अत्यधिक दूर नजर आ रहा है। वास्तविक मुद्दों पर ज्यादा बात नहीं हो रही है। दूसरी ओर, सवैधानिक संस्थाओं से भी यह उम्मीद है कि वे चुनावी प्रक्रिया में कोई भी अलोकतांत्रिक घटना को रोकने में पूरी तरह समर्थ होंगी।

हमेशा की तरह, ईश्वर से प्रार्थना है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का ध्वज शान से फहराता रहे। यह चुनाव लोकतंत्र की जो भी व्याख्या प्रस्तुत करें, उससे सम्पूर्ण भारत गौरवान्वित हो एवं उसको शर्मसार न होना पड़े।

चुनाव आयोग अपना धर्म संविधान में उल्लखित निर्देशों के अनुसार पूर्ण करें। भारतीय चुनाव आयोग अपना कार्य पूर्ण पारदर्शिता एवं ईमानदारी से निष्पादित करेंगे तो विश्व में भारत का और ज्यादा नाम होगा।

(लेखक आईआईएमटी विश्विविद्यालय के कुलाधिपति हैं और यहां व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं)

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