स्त्री.लेखन में मुखर उनके अधिकार३

सविता पांडे

मुट्ठीभर आसमान और सीमाबद्ध धरती का अक्स समेटे भारतीय स्त्री ने आंगन की भीतियों को लाल गेरू से पोतकर उसपर बड़ा.सा ष्सष् लिख दिया।

यह साहित्य का ष्सष् था। एक खूबसूरत ष्सष् जो स्त्री.चेतना को गुनगुनी धूप में सेंक सकता था और उनकी मुट्ठी में सितारे भर सकता था। यह ष्सष् अद्भुत रूमानियतए शान्तिए रहस्यों और पवित्रता से भरा था। साहित्य के ष्सष् ने स्त्री के ष्स्ष् के साथ सामंजस्य बिठाया और स्त्रीत्व की नई परिभाषा रच डाली।

देवीए मांए प्रेयसीए पत्नीए कुटनीए पतिता की आक्रांत छवियों से भयभीत नारी ने नए आयाम और संभावनाएं खोज निकालीं।

दयाए करुणाए प्रेमए सौंदर्यए कोमलताए विश्वास और ईश्वरीय शक्ति होने की जड़ता से परे स्त्री.मन को सारे उद्वेगोंए द्वंद्व और तनाव को बिला देने वाला वह तार चाहिए था जो मन.से.मन का संवाद स्थापित कर सके। उसके सुंदर सपनों की सबसे लुभावनी वस्तु ष्घरष् और उसकी परिधि के बाहर आने वाले कुलए कुटुम्बए परिवारए कबीलेए कस्बे में उसके अनिश्चितए मुश्किल और आशंकित जीवन को इबारत का स्वर चाहिए था। ये स्वर और सपने समकालीन स्त्री लेखन में गहराई से प्रतिध्वनित होते हैं।

उसने रोजमर्रा की बाधा दौड़ों के बीच जीना और लिखना सीख लिया। लेखन ने स्त्री को नई ऊर्जाए कीर्ति और आत्मनिर्भरता दी। आत्मिक निर्भरता। स्वप्न। अब कोरे कागज वह मोर्चा बन गए जहां वह अपनी हर बात लिख सकती थी और हर लड़ाई लिखकर जीत सकती थी। उसकी लेखनी पुराने अर्थोंए संदर्भोंए आकड़ोंए पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने के सफलतम प्रयास करती रही। आजादी की सदी से अधिक समय और उसके पूर्व लेखिकाओं ने न सिर्फ शारीरिकए आर्थिक और परिवारिक शोषणों को उल्लिखित कर कलम उठाने का साहस किया बल्कि सामाजिकए राजनैतिकए सांस्कृतिक.वैचारिकए आर्थिक समकालीन मुद्दों पर भी खूब लिखा।

यह समस्त विश्व की बानगी है। संपूर्ण विश्व में जन्म लेने वाली चेतना की महागाथा। स्त्रीगाथा। अभिव्यक्ति की इस उड़ान और स्वतंत्रता ने तमाम भाषाओं और अलग.अलग काल.खंडों में स्त्री स्वर को गरिमा दी है। स्त्री.मुक्ति भले ही अभी एक ष्नाराष् बनकर रह गया हो लेकिन सृजन और विचार की दुनिया में महिलाओं की उपस्थिति ने स्थापित दृष्टिकोणों को बदला ही है। चाहे यूरोपियन साहित्य हो या अन्य विदेशी भाषाएं सब में स्त्रियों की अभिव्यक्ति के समान रंग मुखरित हैं। 18वीं सदी के इंग्लैण्ड में मेरी वुलस्टोनक्राफ्ट अपनी पुस्तक ष्विंडिकेशनष् में स्त्री शिक्षा और अधिकारों की आवाज पुष्ट करती हैं जो स्त्रियों को उनकी पहचानए आजादी और समानता दिला सके। महिलाओं की आर्थिक.समाजिक और कलात्मक आवश्यकताओं के स्वर वर्जिनिया वुल्फ मुखर करती हैं तो वही फ्रांस की प्रसिद्ध लेखिका सिमोन द बोउवार स्त्री को पुरुष का दूसरा भाग संबोधित कर अपनी पुस्तक ष्द सेकेंड सेक्सष् में तमाम कोणों से स्त्री शक्ति की भूमिका और उसे सेकेण्ड्री बनाने के उपक्रमों पर प्रकाश डालते हुए कहती हैं कि श्स्त्री पैदा नही होतीए बना दी जाती हैश्। एलिन सोवाल्टर ष्गायनोक्रिटिक्सष् थ्योरी उद्धृतकर स्त्री जाति की शारीरिकए मानसिकए भाषायी और सांस्कृतिक अवयवों की सुंदर व्याख्या करती हैं तो सिल्विया प्लैथ पितृसत्ता को न सिर्फ एक क्रूर संचालक बल्कि बर्बादी और विनाश की ओर धकेलने वाला बल कहती हैं। 

शिम्बोस्काए क्लाशए जेटकिन जैसी लेखिकाओं विदेशी साहित्य में स्त्रीवादी सिद्धांत की एक अनुशासन के रूप में पूरी तरह से परिपक्व और बहुआयामी अस्तित्व की व्याख्या करती हैं। जॉर्ज एलियट और इसाक डेनिसन छद्म पुरुष नामों से लिखने का दबाव झेलती दिखती हैं जो अपने को महिलापने से अलग करके एक लेखिका के रूप में प्रमाणित कर सकें।

विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी वरिष्ठ पीढ़ी के साथ नई युवतर पीढ़ी भी सक्रिय हैं। महाश्वेता  देवीए मयनामती ;बंगालीद्धय प्रतिभा रायए कुकुन्तला कुमारी देवी ;उड़ियाद्धय अमृता प्रीतम ;पंजाबीद्धय लल्ला देवीए बेगम हव्वा खातूनए पंडितानी अरनिमाल ;कश्मीरीद्धय लीलावती मुंशी ;गुजरातीद्धय दासी जनाबाईए लक्ष्मीबाई तिलक ;मराठीद्धय औवैयारए आंडल ;तमिलद्ध नालपट्टू बालामणिअम्माए ललिताम्बिंका ;मलायलमद्ध आदि विभिन्न बोलियों. भाषाओं की लेखिकाओं के लेखन में रचनात्मक स्वर हैं जो सिर्फ ष्महिला. लेखनष् तक सिमटे नहीं रह सकते। वे मनुष्यता बनाए और बचाए रखने के स्वर हैं जो किसी प्रकार के रचनात्मक आरक्षण की दरकार नहीं रखते। महिला.लेखन की संपूर्णता का प्रतिबिंब वैदिक साहित्यए संस्कृत साहित्यए प्राकृत साहित्य अप्रभंष साहित्य तक में दिखता है। रोमषा लोपामुद्राए श्रद्वाए कामायनीए यमीए वैवस्तीए पालोमीए शचीए विष्वधाराए अपालाए ममताए वाक्ए अदितिए शाष्वतीए आत्रेयीए ब्रम्हवादिनी घोषा इत्यादि ऋषिकाओं द्वारा रचित साहित्य तत्कालीन लोकजीवन की प्रतिबिंब है। लोक साहित्य और लोकगीतों से झांकती नारी मन की विभिन्न अभिव्यक्तियां लोक.चेतना और मनोवृतियों के अंतरावलंबित स्वरूप को तो दर्शाती ही हैं।

हिन्दी स्त्री.लेखन में महादेवी वर्मा से लगायत जयश्री रायए नीलाक्षी सिंहए प्रत्यक्षाए शिल्पी आदि अनेक लेखन में स्त्री से जुड़े सवाल उठाते और औपचारिक स्वीकृति पाते रहे। दर्शनए इतिहासए भूगोलए अर्थशास्त्रए समाजशास्त्रए यौनविज्ञानए कानूनए मनोविश्लेषणए फिल्म और कला के क्षेत्रों में ज्ञानक्षेत्र का स्त्रीवादी संस्करण साहित्य के माध्यम से मुखरित हुआ है। प्रभा खेतान के श्अन्या से अनन्याष् ;आत्मकथाद्ध लिखने के साहस को नारी.विमर्श  की ष्स्वतंत्रताष् की तरह देखा जाना चाहिए।

कृष्णा सोबती की ष्मित्रो मरजानीष्ए मृदुला गर्ग का ष् चितकोबराष्ए मन्नू  भंडारी का ष्महाभोजष्ए इस्मत चुगताई की ष्लिहाफष्ए लवलीन का ष्चक्रवातष्ए मैत्रेयी पुष्पा का ष्गुड़िया भीतर गुड़ियाष् जैसी ढेरों कृतियां विभिन्न आयामों को छूते साहित्य का उदाहरणभर नहीं स्त्री की नई परिभाषा है जो उसे पुरुष की अंकशायनी बने रहने भर से इतर करता है।

सुभद्रा कुमारी चौहानए महादेवी वर्माए अमृता भारतीए महाश्वेता देवी जैसी लेखिकाओं ने हर तरह के समाजिक और रचनात्मक आंदोलनों में बढ़.चढ़कर भागीदारी की और जोखिम उठाए। अन्नपूर्णा देवीए उषा देवी मित्राए चंद्रकिरण सौनरेक्साए शिवरानी देवीए कौशल्या अश्क स्वतंत्रता पूर्व के आरंभिक दौर में कठिन समय की लेखिकाएं रहीं जिन्होंने अपनी मूक अभिव्यक्तियों को कलम की धार संग बहने देने का कठिन साहस किया। सतीत्वए पत्नीत्वए मातृत्व जैसे विषयों संग नारी चेतना के आत्मबोध और संघर्षरत छवियों को चित्रित किया। उनकी रचनाओं ने निश्चय ही स्त्री की परजीविता और मूल्यों की वकालत की है। अलका सरागवीए गगन गिलए चित्रा मुद्गलए नासिरा शर्माए मृदुला गर्गए मेहरून्निसा परवेजए कुसुम अंचलए मंजुल भगत आदि की कृतियां आत्म विद्रोहए जीवन मूल्यों के पुनर्स्थापन और समन्वयनए परिवर्तनए चुनौतीपूर्ण दात्विबोध जैसे विषयों से पटी हैं और नए मानव मूल्य गढ़ती हैं जो पारंपरिक मूल्यों के तिलिस्मी रहस्य को तोड़कर उपजी हैं। आज का समय महिलाओं के उत्थान के चारों ओर घुम रहा है और समस्त विश्व में एक अलग तरह की संघर्ष चेतना एक साथ पनप रही है। निश्चय ही भारतीय परिवेश में भी यह चेतना समा रही है और महिला साक्षरता वृद्धिए महिलाओं संबंघी कानूनोंए मीडियाए स्त्री.पुरुष संबंधों पर इसका व्यापक असर पड़ा है। इन बदलते हुए कानूनोंए शिक्षा व्यवस्था मीडिया के प्रभावों और नारीवादी आदोलनों ने लेखिकाओं को आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता से लबरेज तो किया ही हैए उनके लिखने का तेवर भी बदला है। व्यक्तिगत ष्स्पेसष् की अवधारणा को नया प्रारूप मिला है जिसने पारंपरिक ढांचे को हिलाकर रख दिया है। पुरुष सत्ता के वर्चस्ववादी मूल्यों को इससे झटका लगा है। मूल्यों के खांचे टूट से गए हैं। गजब का राजनैतिक और वैचारिक लेखन समाज को केंद्र में रखकर हुआ है।

लेकिनए यह दुर्भाग्य ही है कि महिलाओं के लेखन को ष्महिला.लेखनष् के सांचे में सेट कर दिया गया है। अपने लिखे को महिलापने से अलग रखने का दबाव लेखिकाओं पर बना ही रहता है। लेखन में नारीवाददर्शन की तहकीकात और शोध तो होना ही चाहिए लेकिन ष्महिला लेखनष् के पुर्वाग्रह से आसक्त हुए बिना। समय कब का आ चुका है कि महिला लेखन की अलग से इकहरी तस्वीर खिंचनी बंद की जाए और महिला लेखन के इकहरे ढांचे को तोड़ दिया जाए जो साहित्य से लचीलापन और विविधता छीन लेता है। महिला लेखन को ष्घरष् की दीवारों और छप्परों के साथ जोड़ दिया गया है। दांपत्य जीवन के संदर्भ विवाहेत्तर संबंधए पारिवारिक मूल्य निज स्वंतत्रताए नीति.अनीति जैसे विषयों को अगर महिलाओं ने देखाए समझा और रचा है तो यह ष्घरष् के दायरे में रहकर तीव्रए गहन अनुभूतियों को कलमबद्ध करना ही है ष्घरष् स्त्री.पुरुष का सम्मिलित ठिया है। एक लेखक विशुद्ध रचनाकार होता है। महिला या पुरुष नहीं। अनुभूतिए अभिव्यक्तिए स्वानुभवों और आत्मचेतना की अभिव्यक्ति को बांटना कितना सही हैण्ण्ण्घ्

महिलाओं के लेखन और सोच में प्रखरताए परिपक्वता और नई भंगिमा ने नए धरातल का निर्माण किया है। इस डगमगाते धरातल के संरक्षण के लिए नए कानून और अधिकार बने तो हैं लेकिन साहित्य की तरह ही आम महिला वर्ग का प्राय उसे नहीं दिला सके हैं। नारी लेखन समस्त स्त्री जाति के मौन शब्द हैं। स्त्री ने स्त्री की दबी.घुटी पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। चाहे वह पीड़ा और मुखालफत तसलीमा नसरीन के जन धर्मी .जीवनधर्मी साहित्य में या अरुंधति राय के ष्खतरनाकष् लेखन में व्यक्त हुआ हो या बहुत ही शांत चित्र आक्रोश के साथ ष्एक कहानी यह भीष् में। लेखिकाओं ने अन्य स्त्रियों को उनके अधिकारों और मूल्यो के प्रति सचेत किया है। लेकिनए जिनके लिए नारी चेतना को झकझोरता लेखन किया जाता है उनतक पहुंचता ही नहीं। दरअसल यह कमी सिर्फ महिला लेखन संदर्भ में नहीं समूचे हिन्दी साहित्य की दुखभरी बानगी है। कथा लेखन के क्षेत्र में लेख्किाओं की कमी और समाज से दूरी सालती जरूर है। जहां महिलाओं की जनसंख्या प्रतिशत ही कम हो वहां लेखन के क्षेत्र में कमी स्वाभाविक ही है। इसी क्रम में पाठकों और प्रशंसकों में भी पुरुष ही अधिक हैं। फिर भी संभावनाओं की धरती हरियाती जा रही है। नए परिवेश में नई प्रतिभाएं न सिर्फ अंकुरित हो रही हैंए उनसे सुंदर फूल और मीठे फल भी मिल रहे हैं। सृजनात्मक दुनिया विस्तारित हुई है।

ष्मेरी देह वापस करोष् तो ठीक है लेकिन स्त्री लेखन को यह भी सावधानी तो बरतनी ही है कि ष्दलित.विमर्शष् की तरह ष्शेष समाजष् को दुश्मन न मान लिया जाए या स्त्री अधिकारों की बात करते . करते पूरे पुरुष समाज को ही प्रतिद्वंदी न मान लिया जाए। स्त्री लेखन को देह. विमर्श बनाने से बचना होगा। देह ओर देह के पार खुले आकाश को घर बनाना होगा। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह स्त्रियों में कीर्तिए श्रीए वाक्ए स्मृतिए मेधाए धृति और क्षमा के रूप में विराजते हैं। इसलिए स्त्री मुक्ति भारतीय रास्ता यही हो सकता है कि सप्त शक्तियां फूल सकें और खिल सकें। स्त्री मुक्ति एक विचारए शक्ति है। इसलिए नारी मुक्ति को भारतीय रास्ता देने की जरूरत है। 

स्त्री लेखन को जीवन के अनेक रंग अभी रचने हैं। जीवन को सुंदर बनाना है। व्यापक भी!

;ैंउपोीं ठींतजप छमूे ैमतअपबमद्ध

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