‘जब शासन सोता है, तो अराजकता पनपती है’, यह कहावत भारत की सड़कों पर चरितार्थ हो रही है। आवारा कुत्ते, बेसहारा गायें और उन्मुक्त्त बंदर आज हमारे मोहल्लों और गलियों को मैदान-ए-जंग बना चुके हैं, और तमाम सरकारी एजेंसियां तालमेल के अभाव में महज तमाशबीन बनी बैठी हैं।
भारत की सड़कें सिर्फ गाड़ियों के हॉर्न से नहीं गूंज रहीं, बल्कि ऐसे जीवों से भरी हैं जो पैदल चलने वालों और साइकिल सवारों के लिए ‘राम नाम सत्य’ कर देने को तैयार बैठे हैं। वाहन चालकों को हर मोड़ पर सावधान रहना पड़ता है — कभी सामने से दौड़ता आवारा कुत्ता, तो कभी मस्ती में घूमते मवेशी, या बिजली के खंभों से लटकते आक्रामक बंदर। यह रोज़ का खतरा न तो कोई दैवी प्रकोप है और न ही भारतीय संस्कृति की विरासत — यह सीधा-सीधा प्रशासन की नींद और जिम्मेदार एजेंसियों के बीच ‘ढाक के तीन पात’ जैसे तालमेल का नतीजा है।
11 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने, रेबीज के बढ़ते मामलों और साल की पहली छमाही में दर्ज 35,000 से ज्यादा कुत्ते के काटने की घटनाओं से चिंतित होकर, दिल्ली-एनसीआर के सभी आवारा कुत्तों को आठ हफ्ते के भीतर शेल्टर होम में भेजने का आदेश दिया। सुनने में यह फैसला ‘गंगाजल डालने’ जैसा लगता है। दिल्ली में 8–10 लाख आवारा कुत्ते हैं, जिन्हें रातों-रात शेल्टर में भरना न संभव है, न ही व्यावहारिक — क्योंकि नगर निगमों के पास न तो ढांचा है, न धन।
देश में आवारा कुत्तों की संख्या छह करोड़ से ऊपर है, यानी दुनिया के कुल आवारा कुत्तों का 37 फीसदी भारत में है। दिल्ली में रोज़ लगभग दो हजार कुत्ते के काटने की घटनाएं दर्ज होती हैं, जिनमें बच्चे और बुजुर्ग सबसे ज्यादा शिकार होते हैं। रेबीज हर साल हजारों की जान लेता है, लेकिन 'एनिमल बर्थ कंट्रोल' कार्यक्रम ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ साबित हो रहा है — बजट कम, नसबंदी अभियान टुकड़ों में और टीकाकरण अधूरा है।
गाय और बंदर भी किसी से पीछे नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सड़कें अब बेसहारा गायों के लिए ‘ऑल-यू-कैन-ईट बुफे’ बन चुकी हैं। ये जानलेवा हादसों और अंतहीन ट्रैफिक जाम की वजह बनती हैं। गोरक्षा कानून तो बन गए, लेकिन पुनर्वास योजनाओं का अभाव होने के कारण किसान बेकार मवेशियों को छोड़ देते हैं — ‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ की तर्ज पर सरकार ने सोचा कि समस्या खत्म हो जाएगी, लेकिन असल में यह और बिगड़ गई।
हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बंदरों की आबादी ‘आम के आम, गुठलियों के दाम’ वाली स्थिति में है — लोग पूजा या मज़े के नाम पर खिलाते रहते हैं, और वन्यजीव प्रबंधन की कोई ठोस रणनीति नहीं बनती। नतीजा — फसलों का नुकसान, इंसानों पर हमले और पर्यटकों को डर।
टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी का कहना है कि जानवर निर्दोष हैं, दोषी हैं वे जो जिम्मेदारी से भागते हैं। नगर निकाय, पशुपालन विभाग, वन्यजीव बोर्ड और पुलिस सब अलग-अलग राग अलाप रहे हैं। अदालतें आदेश देती रहती हैं, लेकिन बिना समन्वय, बिना सख्त कानून और बिना बजट, ये आदेश बस हवा में महल बनकर रह जाते हैं।
तुर्की और इटली ने दिखाया है कि समुदाय की भागीदारी और जवाबदेह स्थानीय प्रशासन से आवारा जानवरों का मानवीय प्रबंधन संभव है। भारत में, अगर सरकारें इस मुद्दे को गौण मानना बंद कर दें, और देशव्यापी नसबंदी, टीकाकरण, पुनर्वास योजनाओं के साथ-साथ जानवर छोड़ने पर कड़ी सजा का कानून लागू करें, तभी यह आतंक खत्म होगा।
यह सिर्फ जन-स्वास्थ्य या यातायात का संकट नहीं है — यह एक प्रशासनिक दिवालियापन है। जब तक व्यवस्था में जान नहीं डाली जाती, तब तक हमारी सड़कें जंग का मैदान बनी रहेंगी, और जनता को रोज़ अपने जोखिम पर सफर करना पड़ेगा।
बेसहारा मवेशियों की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सड़कें अब परित्यक्त गायों के चरागाह बन चुकी हैं, जिससे जानलेवा हादसे और अंतहीन ट्रैफिक जाम होते हैं। इसी तरह, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बंदरों की आबादी अंधाधुंध भोजन दिए जाने और वन्यजीव प्रबंधन की रणनीति के अभाव में बेतहाशा बढ़ गई है, जिससे इंसानों पर हमले और फसलों का नुकसान हो रहा है।
जब तक सरकारें इसे एक गैर-जरूरी मुद्दा समझना बंद नहीं करेंगी और राष्ट्रव्यापी नसबंदी, टीकाकरण, पुनर्वास कार्यक्रमों के साथ-साथ जानवरों को छोड़ने के खिलाफ सख्त कानूनों को लागू नहीं करेंगी, तब तक आवारा कुत्तों, गायों और बंदरों का आतंक हमारी सड़कों को खतरनाक मैदान-ए-जंग बनाता रहेगा। यह सिर्फ सार्वजनिक स्वास्थ्य या यातायात सुरक्षा का संकट नहीं है — यह एक प्रशासनिक संकट है।
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