पूरा देश 14 नवंबर का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। बिहार में लालू यादव का जंगलराज लौटेगा या नीतीश बाबू का चटपटा करामाती ठेला अपनी जगह टिका रहेगा? बिहार के चुनावी नतीजों से देश की राजनीति प्रभावित हो सकती है।
इस वक्त तेजस्वी यादव महागठबंधन के कप्तान बने हुए हैं। चुनावी अभियान में उन्होंने खूब सपने दिखाए और लॉलीपॉप बांटे हैं। नीतीश कुमार ने अपनी उपलब्धियों की गाथा सुनाई। प्रशांत किशोर अपने को ‘किंग मेकर’ की भूमिका में देखते रहे। उधर, राहुल गांधी जूनियर पार्टनर के रूप में महागठबंधन को सत्ता में देखने के मंसूबे बनाते रहे।
यह बात तो सही है कि नीतीश राज में बिहार में विकास की रफ्तार यूपी जैसी नहीं रही है और अभी भी औद्योगिक समृद्धि के दरवाजे नहीं खुले हैं, लेकिन आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट है कि दिशा और गति संतोषजनक है। लालू यादव, रावड़ी देवी व तेजस्वी यादव ने कुल 18 वर्ष तक सत्ता सुख भोगा, खूब सुर्खियां बटोरीं और परिवार वाद को खूब सींचा। बीस साल पहले का बिहार एक ऐसा प्रदेश था, जिसका नाम ‘जंगलराज’ से जुड़ गया था। अपराध, भ्रष्टाचार और ठहरी हुई अर्थव्यवस्था की मार ने इसे निराशा के अंधकार में धकेल दिया था। पर अब, इस बार, बिहार अपनी इस कहानी को पूरी तरह पलटने के मोड़ पर दिख रहा है।
साल 2005 में बिहार का सकल राज्य घरेलू उत्पाद ₹75,608 करोड़ था और आधे से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे थे। उस वक्त सड़कों, बिजली और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं न के बराबर थीं। प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का लगभग एक-तिहाई थी और साक्षरता दर भी बहुत कम, खासकर महिला साक्षरता।
लेकिन, तब से अब तक नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार ने अभूतपूर्व बदलाव की राह पकड़ी है। आज बिहार का जीडीपी लगभग ₹11 लाख करोड़ तक पहुंचने वाला है, प्रति व्यक्ति आय में भारी वृद्धि हुई है, और गरीबी दर में काफी कमी आई है। साक्षरता दर बढ़कर 74.3 फीसदी हो गई है, महिला साक्षरता दोगुनी से अधिक हो गई है। बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ है, ग्रामीण सड़कों और बिजली का विस्तार हुआ है, और जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार दिख रहा है।
यह सब अचानक नहीं हुआ। साल 2005 में नीतीश कुमार ने कानून-व्यवस्था सुधार को प्राथमिकता दी और लालू-राबड़ी के जंगलराज युग का अंत किया। अपहरण और हिंसक अपराध कम हुए, जिससे निवेश और विकास को बढ़ावा मिला। सरकार ने योजनाओं के जरिए खासकर लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया और ग्रामीण इलाकों को जोड़ने वाली सड़कों का नेटवर्क बनाया। कोविड-19 के बाद मजदूरों की वापसी और विनिर्माण में प्रोत्साहन ने आर्थिक रफ्तार को और ऊंचाई दी।
फिर भी, बिहार कई सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है। राज्य की कम आय, बेरोजगारी, और जाति-धर्म के जटिल समीकरण इसे निरंतर विकास की राह में बाधित करते हैं। 2025 के विधानसभा चुनाव परिणाम अब बताएंगे कि क्या बिहार अपनी प्रगति को जारी रखेगा या फिर पुराने संकटों के गर्त में लौट जाएगा।
चुनावों के दौरान, नीतीश कुमार और एनडीए ने अपनी सरकार में सतत विकास का रिकॉर्ड पेश किया, जबकि विपक्षी दल आरजेडी सामाजिक न्याय का वादा लेकर सामने आया पर उसका जंगलराज का दौर भी लोगों के जेहन में है। नए दल भी खास तौर पर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने विकल्प की पेशकश की। इससे चुनाव दिलचस्प बन गया। बिहार में यूपी जैसे ध्रुवीकरण की रेखाएं स्पष्ट नहीं दिखीं। नीतीश कुमार की पार्टी को मुस्लिम वोट भी मिलते रहे हैं, जबकि भाजपा ने धार्मिक मुद्दों को दरकिनार करके सिर्फ विकास के लक्ष्यों पर फोकस किया। सत्ताधारी जद (यू) अपने को सेकुलर पार्टी कहती रही है।
शुरुआत में लगा था प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति में भूचाल लाएंगे, एक नए तरह की वोटर मैनेजमेंट, अपील और युवाओं को आकर्षित करने वाली मुहिम के इंजन बनेंगे। लेकिन, अब लग रहा है कि उनकी दाल ज्यादा गली नहीं है।
बिहार का औसत वोटर विश्वास करने लगा है कि सही नेतृत्व और अच्छे प्रशासन से निराशा को विकास में बदला जा सकता है। इस बार मतदाता के सामने एक साफ विकल्प था, क्या वे विकास के रास्ते पर कायम रहेंगे या फिर अतीत की भूलों को दोहराएंगे। हर एक वोट इस चुनाव की दिशा तय करेगा। संकेत ये भी मिल रहे हैं कि वोट कटवा पार्टियों को इस बार कोई विशेष भाव नहीं मिलेगा। अधिकांश वोटर देश की मुख्यधारा से ही जुड़ना चाह रहा है।






Related Items
भारत की राजनीति में जातियों के आगे नतमस्तक हैं विचारधाराएं
सुनें : बिहार का मौसम बदला है भाई...! मंच वही है, स्क्रिप्ट नई आई...!!
नीतीश की पलटी राजनीति और तेजस्वी की बग़ावत में पीके का जोशीला तड़का!