भारतीय राजनीति का नक्शा बदल देने वाले दो सबसे बड़े 'कारक' हैं – जातिवाद और सांप्रदायिकता। ये दोनों ही कारक चुनावी रणनीतियों से लेकर शासन तक, हर पहलू को प्रभावित करते हैं। साल 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की तैयारियों में यह साफ दिख रहा है।
हाल ही में, भाजपा ने 70 में से 44 जिला अध्यक्षों की नियुक्ति में ब्राह्मण और पिछड़ा वर्ग को प्राथमिकता दी है, जो जातिगत गणित के महत्व को रेखांकित करता है। वहीं, महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज छह नियुक्तियों तक सीमित है, जो राजनीति में जाति और लिंग की जटिल अंतःक्रिया को प्रदर्शित करता है।
अंग्रेजी में पढ़ें : Polarization, A ‘Game Changer’ or ‘Roadblock’ in Indian Politics!
पटना के समाजवादी विचारक टीपी श्रीवास्तव के मुताबिक, "बिहार में जाति-आधारित नेतृत्व का पुनरुत्थान और क्षेत्रीय दलों के रणनीतिक गठबंधन, जातिगत निष्ठाओं पर राजनीतिक लामबंदी की निर्भरता को दर्शाते हैं।" बैंगलुरु के समाजवादी नेता बापू शेट्टी कहते हैं, "कर्नाटक में भी लिंगायत और वोक्कालिगा जैसे प्रभावशाली समुदायों के साथ-साथ रेड्डी, गौड़ा और राव जैसे शक्तिशाली परिवारों का दबदबा है। जातिगत समूहों के दाव-पेंच, दबाव और गतिशीलताएं न केवल उम्मीदवार चयन, बल्कि नीति निर्माण और शासन की प्राथमिकताओं और नियुक्तियों को भी प्रभावित करती हैं।"
दिल्ली, जो अपनी महानगरीय छवि के लिए जानी जाती है, भी जातिगत राजनीति से अछूती नहीं है। मुख्यमंत्री के रणनीतिक चयन में जातिगत वोट बैंक को ध्यान में रखा गया और इस बार वैश्य समुदाय को मौका मिला है। नेहरू-इंदिरा गांधी युग के ब्राह्मणवादी प्रभुत्व से लेकर वीपी सिंह काल में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद ओबीसी नेताओं के उदय तक, भारतीय राजनीति का इतिहास जातिगत गतिशीलता की कहानी कहता रहा है। समाजवादी पार्टी के स्थापक मुलायम सिंह यादव हों या बिहार के लालू प्रसाद यादव, सबने खुलकर जातिवादी राजनीति की।
20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कांशीराम और बसपा के उदय ने एक नया मोड़ लिया, और मायावती के नेतृत्व में दलित राजनीति का उभय देखा। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिंदू राष्ट्रवाद के उभार ने जाति-आधारित राजनीति को कुछ समय के लिए किनारे तो किया लेकिन जातियों के मकड़जाल से फिर भी मुक्ति नहीं मिली।
उधर, तमिल नाडु में डीएमके के नेतृत्व में ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ने जाति तंत्र को एक नया आयाम दिया। कोयंबटूर के गोपाल कृष्णन बताते हैं, “ब्राह्मणों का एक बड़ा तबका दिल्ली या अमेरिका, सिंगापुर व अन्य जगहों को पलायन कर गया, जो आबादी बची उसे द्रविड़ लामबंदी के नाम पर उत्तर और हिंदी विरोधी बना दिया गया।"
राजनीति टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "वास्तविकता यह है कि सांप्रदायिकता भी जाति के साथ मिलकर राजनीतिक परिदृश्य को और जटिल बना देती है। ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ जहां धार्मिक और जातिगत पहचानों को रणनीतिक रूप से इस्तेमाल किया जाता है, ने मतदाताओं के ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया है। यह धार्मिक बयानबाजी और सांप्रदायिक गठबंधनों में साफ देखा जा सकता है। 'पसमांदा' मुस्लिम आंदोलन इसका एक बड़ा उदाहरण है, जो मुस्लिम समुदाय के भीतर जातिगत विभाजन को उजागर करता है। अन्य धार्मिक समुदाय भी जातिगत पूर्वाग्रहों और बंटवारों से अछूते नहीं हैं।"
शहरीकरण और बदलती कार्य संस्कृति ने जातिगत पहचानों को कुछ हद तक कमजोर किया है, लेकिन हिंदू समाज की सामाजिक संरचनाएं अभी भी जातिगत पदानुक्रम को बनाए रखती हैं। सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता के मुताबिक विवाह के मामलों में यह और स्पष्ट है, जहां सजातीय विवाह एक मजबूत सामाजिक मानदंड बना हुआ है। "अंतर्रजातीय विवाह अक्सर एक ही पेशेवर स्तर वाले लोगों तक ही सीमित हैं। तथाकथित प्रेम विवाह, ‘मैरिज ऑफ कन्वेनिएन्स’ के तौर पर हो रही हैं जिसमें कम से कम संघर्ष या सामाजिक तनाव होता है।"
चुनावी राजनीति में पार्टियां इन विभाजनों का फायदा उठाती हैं, जिससे ‘वोट बैंक पॉलिटिक्स’ नीतिगत बहस और राष्ट्रीय एकता से ऊपर हो जाती है। पहचान-आधारित लामबंदी आर्थिक विकास, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान भटकाती है।
स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी, जातिवाद और सांप्रदायिकता के वायरस भारतीय राजनीति में 'गेमचेंजर' बने हुए हैं। ये उम्मीदवार चयन, पार्टी रणनीतियों और मतदाता व्यवहार को प्रभावित करते हैं। जाति और सांप्रदायिकता भारतीय राजनीति के 'डीएनए' में गहराई तक बसी हुई हैं।
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