‘मीलॉर्ड! आप देश के कर्णधार और हमारे आदर्श हैं!’


किसी भी देश की सुख, शांति व समृद्धि की पहचान वहां की श्रेष्ठ न्याय प्रणाली से होती है। न्याय प्रणाली के अन्तर्गत उस देश के न्यायाधीशों की भूमिका सर्वोपरि होती है। न्यायाधीशों के विवेकपूर्ण निर्णयों से देश की उन्नति को रास्ते मिलते हैं। इसके विपरीत, जिस देश की न्यायपालिका भ्रष्ट आचरणों में रत होती है तो उस देश की अवनति सुनिश्चित है। ऐसी परिस्थिति में न केवल वहां की जनता प्रताड़ित होती है, अपितु वह देश शनैः शनैः गरीबी रेखा से नीचे चला जाता है।

प्राचीन काल में भारत देश ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था। इसका मुख्य कारण उस समय की न्यायपालिका की पूर्ण निष्पक्षता थी। राजा अपने परिवार के सदस्यों को भी कठोर दंड देने में नहीं झिझकते थे। विक्रमादित्य, कृष्ण देवराय, हर्षवर्धन, चन्द्रगुप्त मौर्य व अशोक आदि राजा अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इनकी विशेषता यह थी, इन्होंने अपने शासनकाल में दंड के बजाय सुधार पर जोर दिया था। समय बदला और मुगलों व अंग्रेजों के भारत पर आक्रमण के पश्चात, न्यायपालिका का कुटिल राजनीतिकरण होने लगा। इसके चलते भारतीय उत्पीड़न का शिकार बने।

वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो जनता को यह आश्वासन दिया गया कि अब राम राज्य पुनः स्थापित होगा और देश में पुनः दूध की नदियां प्रवाहित होंगी। निर्धन जनता को त्वरित न्याय प्राप्त होगा और न्यायपालिका की छवि पुनः गौरवशाली होगी। परंतु, यह जनता के लिए अब तक मात्र एक दुःस्वप्न ही रहा है।

भारत को स्वतंत्रता मिले 78 साल हो चुके हैं और अदालतों में पांच करोड़ से अधिक वाद लंबित हैं। वादी अपनी युवावस्था से वृद्धावस्था तक न्याय की प्रतीक्षा करते-करते प्राण त्याग देते हैं और वादी की अगली पीढ़ी भी न्याय के लिए हताशाभरी नजरों से अदालतों की ओर ताकती रहती है। माननीय न्यायाधीशों के समक्ष ही पेशकार हर तारीख पर अग्रिम तारीख देने ते लिए निर्धन जनता को बाध्य करते रहते हैं। गरीब जनता हर सुबह मीलों दूर से न्याय की आशा में अदालत के चक्कर काटती है और दिनभर की आशा संध्या तक हताशा में परिवर्तित हो जाती है। शाम होते-होते वह एक नई तारीख लेकर घर वापस लौट जाते हैं।

भारत में अब केवल लंबित वादों की ही समस्या नहीं है। इसके इतर, अब न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार एवं दुष्चरित्रचा के प्रकरण भी अधिकाधिक मात्रा में सामने आने लगे हैं। न्यायधीशों के घरों से भारी मात्रा में ‘अज्ञात’ धनराशियों का प्राप्त होना, यह प्रदर्शित करता है कि अवश्य ही दाल में कुछ काला जरूर है। इस सत्य को कोई नहीं नकार सकता कि न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार बहुत कम ही प्रमाणित होते हैं। उनके द्वारा मुकदमों को लम्बित करने एवं उनके द्वारा दिए गए निर्णय अनेक बार भ्रष्टाचार में लिप्त या संदेहास्पद होते हैं।

चूंकि, भ्रष्ट न्यायाधीशों के विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य न होने के कारण उनपर किसी तरह का आक्षेप नहीं लगाया जाता, परन्तु मौन असंतोष अवश्य ही अभिव्यक्त किया जाता रहा है। न्यायपालिका के अन्तर्गत व्याप्त भ्रष्टाचार को यदि अभिव्यक्त किया जाए तो उसके अर्न्तगत विभिन्न प्रकार से धन का आदान-प्रदान होता रहा है। इसका माध्यम परिवार के सदस्यों, वकीलों और दलालों को बनाया जाता है। इसको प्रमाणित करना लगभग नामुमकिन है। पूर्व में यह भ्रष्टाचार नीचे की अदालतों में ही देखा जाता था, किंतु अब यह ऊपर तक पहुंच गया है। इसके जब-तब मिल रहे प्रमाण दुनिया में भारत की छवि को धूमिल कर रहे हैं। जब न्यायपालिका के ही भ्रष्टाचार में लिप्त होने के संकेत मिलने लगें तो भ्रष्टाचारियों का अनियंत्रित हो जाना स्वाभाविक ही है।

यदि देश की न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत होने वाले भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करना है तो भ्रष्ट न्यायाधीशों का अपराध सिद्ध होने पर उनको कठोर व त्वरित सजा का प्रावधान होना चाहिए। भ्रष्ट न्यायाधीशों की खोज करने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी की स्थापना की जानी चाहिए, जो भ्रष्टों पर अंकुश लगाने के लिए स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके। यदि ऐसी व्यवस्था सम्भव हो जाती है तब ही भारत देश को वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त होगी।

(लेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और यहां व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं)



Related Items

  1. अपनी सनातन पहचान को गले लगाने का आ गया है समय

  1. बेहद बेबस नजर आती है 'खास' लोगों के आगे हमारी न्याय व्यवस्था…!

  1. भारत के आर्थिक बदलाव में महिलाओं की है अग्रणी भूमिका




Mediabharti