अपनी सनातन पहचान को गले लगाने का आ गया है समय


हमारा धर्म साझा विश्वासों, मूल्यों और परंपराओं के जरिए राष्ट्र को एकजुट कर सकता है। जब किसी देश में धर्म को राष्ट्र की नींव के रूप में देखा जाता है, तो यह सांस्कृतिक एकता और सामूहिक उद्देश्य की भावना को मजबूत करता है।

इतिहास में कई देशों ने यह अनुभव किया है। पाकिस्तान में इस्लाम ने राष्ट्रीय पहचान बनाई, पोलैंड में कैथोलिक धर्म ने कम्युनिज्म के खिलाफ संघर्ष को ताकत दी। यरूशलेम और मक्का जैसे धार्मिक स्थल राष्ट्रों को उनकी आध्यात्मिक जड़ों से जोड़ते हैं। आयरलैंड की कैथोलिक परंपराओं या थाईलैंड के बौद्ध त्योहारों की तरह धार्मिक रीति-रिवाज और नैतिक मूल्य समाज को साथ लाते हैं और राष्ट्र को मजबूती देते हैं।

Read in English: Time has come to embrace the eternal Hindu identity…

इधर, आजादी के 75 साल बाद, अब भारत की असली रूह भी खुलकर सामने आना चाहती है। वह आत्मा, जो हिंदू है, सनातन है। सालों तक ‘सेक्युलरिज्म’ के नाम पर इस देश की असलियत को छिपाया गया, लेकिन अब वह पर्दा हट रहा है। वक्त आ गया है कि हम भारत की उस पुरानी, चिरस्थायी आत्मा को फिर से अपनाएं, जिसने सदियों से इस मुल्क को एक रखा और इसकी तकदीर को संवारा।

भारत के प्रधान मंत्री ही नहीं, राष्ट्रपति मुर्मू भी धार्मिक स्थलों की यात्रा करने में पीछे नहीं हैं, भाजपा सरकारें खुलकर राज्यों में धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहित कर रही हैं। सदियों बाद यह माहौल बना है। लोकतंत्र में बहुमत वाले समुदाय के साथ अन्याय, उपेक्षा, नफरत का वातावरण, बनाना, कहां तक उचित था, आज इसका जवाब मांगा जा रहा है। दुर्भाग्यवश, भारत अब तक अपनी रूह से पूरी तरह जुड़ नहीं पाया था। वह रूह, जो हिंदू फलसफे में बसती है, लेकिन संविधान में ‘सेक्युलर’ का लेबल लगा दिया गया। 1975 के आपातकाल में ‘सेक्युलर’ शब्द जोड़ा गया, ताकि निष्पक्षता का दिखावा हो, मगर हकीकत में यह सियासी तुष्टिकरण का हथियार बन गया। अब वक्त है इस नकाब को उतारने का और अपनी असली शक्ल को कबूल करने का।

प्रो. पारसनाथ चौधरी कहते हैं, “1947 में मुल्क का बंटवारा मजहब के आधार पर हुआ। पाकिस्तान ने अपनी इस्लामी पहचान को खुलकर अपनाया, लेकिन भारत अपनी सनातन रूह को कबूलने में हिचकिचाया। आधुनिकता और तथाकथित निष्पक्षता की तलाश में हमने अपनी सांस्कृतिक जड़ों को दबा दिया। मगर अब इतिहास हमें पुकार रहा है, भारत की रूह सिर्फ हिंदू सोच में ही जिंदा है।”

हिंदू फलसफा हमें वह सबक देता है, जो हमेशा से हमारे साथ रहे, ‘हक से पहले फर्ज’, ‘सच हर मजहब में बस्ता है’, और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ यानी सारा जहां एक खानदान है। यही वह उसूल हैं, जिन्होंने इस रंग-बिरंगे मुल्क को सदियों तक जोड़े रखा। हिंदू धर्म कोई कट्टरपन नहीं, बल्कि एक ऐसा तरीका है जीने का, जो कई रास्तों को एक ही सच की ओर ले जाता है।

भारत को हिंदू मुल्क कहना किसी को दबाने की बात नहीं, बल्कि उस विचारधारा का सम्मान है, जिसने बुद्ध, महावीर, गुरु नानक और विवेकानंद जैसे महान लोग दिए। इसने पारसियों, यहूदियों और हर मजहब वालों का खुला दिल से स्वागत किया। समाजशास्त्री टीपी श्रीवास्तव कहते हैं, यही उदारता, यही सब्र भारत की असली पहचान है।

फिर भी ‘सेक्युलरिज्म’ के नाम पर बहुसंख्यक समाज को गुनहगार ठहराया गया। हमारी सांस्कृतिक शान को दबाया गया, और देशभक्ति तक को शक की नजर से देखा गया। अब वक्त है इस मानसिक गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने का। भारत को हिंदू मुल्क कहना किसी को बाहर करने की बात नहीं, बल्कि संविधान की रूह को मुल्क की रूह से जोड़ने की कोशिश है।

डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, “भारत का खयाल कोई बाहर से आया नहीं। यह वेदों में जन्मा, उपनिषदों में पला, गीता में चमका और सदियों में फला-फूला। भारत को हिंदू मुल्क कहना कोई नई बात नहीं, यह तो अपनी रूह को फिर से जगाने की बात है। वेदों की गूंज इस मिट्टी में है, पुराणों की कहानियां इसकी नदियों में बहती हैं, और इसकी हवाओं में त्याग, तप और रहम की खुशबू है। अब वक्त है कि भारत बेखौफ अपनी जड़ों की ओर लौटे।”

दरअसल, हिंदुत्व कोई कट्टर सोच नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना है, जो अलग-अलग धाराओं को एक बड़े संगम में मिलाती है। सामाजिक कार्यकर्ता सुब्रमनियन कहते हैं कि जब सेक्युलरिज्म बराबरी की जगह तुष्टिकरण बन जाता है, तो वह मुल्क की एकता को खतरे में डालता है। आज भारत उसी खतरे से जूझ रहा है। कश्मीर से पलायन, राम मंदिर के लिए दशकों का संघर्ष, और समान नागरिक संहिता पर खामोशी, ये सब उस टेढ़े-मेढ़े सेक्युलरिज्म के निशान हैं, जो गुलामी की ‘बांटो और राज करो’ की सोच से निकले हैं।

अब सच को गले लगाने का वक्त है। भारत की धड़कन हिंदू है, इसकी बुनियाद हिंदू है, इसकी रूह सनातन है। यह मुल्क हमेशा से हिंदू था, और हमेशा रहेगा।



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