अगली बार किसी मासूम निर्भया को मरते देखें, या सुनें तो जरूर सवाल करें कि क्या संस्कारी देशवासियों का जमीर मर चुका है, क्या आज के भारत में स्त्रियां अपनी मर्जी से जी सकती हैं, क्या परिवारों, मोहल्लों, स्कूलों और पुलिस थानों में लड़कियां सुरक्षित हैं?
आंकड़ों पर गौर फरमाएं। आज 21वीं सदी में भी भारत की हालत किसी मध्ययुग से बेहतर नहीं है। साल 2021 में 31 हजार से ज़्यादा बलात्कार दर्ज हुए। यानी, हर दिन 86 औरतें, हर घंटे लगभग चार! ओडिशा में 2024 में आठ फीसदी और मध्यप्रदेश में आदिवासी इलाक़ों में 19 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज हुई। लेकिन सज़ा? मुश्किल से 27 फीसदी! और पुलिस? शिकायत करने जाओ तो पूछती है कि “क्या पहन रखा था?” इंसाफ़ मांगो तो कोर्ट पूछता है कि “क्यों देर से आई थी?” समाज पूछता है कि “कहीं बदनाम तो नहीं हो जाएगी?” हर केस में पीड़िता दो बार मरती है, एक बार अपराध से, और दूसरी बार समाज की चुप्पी से।
Read in English: A terrifying tale of the dead conscience...
याद कीजिए, अगस्त 2024, कोलकाता में 31 वर्षीय डॉक्टर अस्पताल के भीतर बलात्कार और हत्या का शिकार बनी। उसकी लाश एक सेमिनार रूम में पड़ी मिली। देशभर में डॉक्टरों ने हड़ताल की, महिलाएं सड़कों पर उतरीं। मार्च 2024, झारखंड में एक स्पेनिश पर्यटक का गैंगरेप हुआ, उसे पीटा गया, वीडियो बनाया गया। हाथरस, वही दर्दनाक नाम फिर लौट आया, शादी से लौटती 17 वर्षीय दलित लड़की का गैंगरेप, केवल उसकी जाति ही उसका ‘अपराध’ थी। पलामू में मंच की चमक के पीछे छिपा अंधेरा, एक नर्तकी अपने ही साथियों द्वारा शोषित।
फरवरी 2025, केरल की दलित किशोरी ने बताया कि पांच साल तक 60 लोगों ने, जिनमें पड़ोसी, रिश्तेदार और अनजान तक शामिल थे, उसका यौन शोषण किया। वीडियो से ब्लैकमेल कर, डराकर, तोड़कर रखा गया। आगरा के एक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान में एक रिसर्चर की हत्या आज तक रहस्यमय बनी हुई है।
सोचिए, कितनी बार किसी मासूम की लाश समाज की शर्म पर आईना रखेगी? यह वही देश है जो “नारी तू नारायणी” कहकर सिर झुकाता है, मगर अंधेरे में वही हाथ उसकी इज़्ज़त नोंच लेते हैं। ये सिर्फ अपराध नहीं बल्कि यह सभ्यता का पतन है, इंसानियत की आख़िरी सांस। हर बार जब कोई लड़की चुप हो जाती है, हम सब उसके अपराध में साझेदार हो जाते हैं।
बलात्कार, एक ऐसा ज़ख्म जो सदियों से मानवता की देह पर रिस रहा है। यह केवल शरीर की हिंसा नहीं बल्कि आत्मा की हत्या है। यह सत्ता का हथियार है, वर्चस्व का प्रतीक है, और औरत को उसकी जगह “याद दिलाने” का मर्दवादी हथकंडा। जब समाज शिकारी और शिकार में बंट गया, तब औरत को संपत्ति बना दिया गया, ज़मीन, खेत, और देह सब पर पुरुष का हक़ ठहराया गया। यही से शुरू हुई वह मानसिक गुलामी, जिसकी जड़ें आज तक हमारे दिलो-दिमाग़ में हैं।
प्राचीन युद्धों में जब सेनाएं हारती थीं, तो औरतें युद्ध की ‘ट्रॉफी’ बन जाती थीं। रोमन साम्राज्य से लेकर मंगोल आक्रमणों तक, औरतों की अस्मिता को जीत का प्रतीक बना दिया गया। आईएसआईएश के दरिंदों से लेकर आज की यूक्रेन या सीरिया तक, तस्वीर वही है, औरत की देह, मर्द की जीत का प्रमाण। बलात्कार सिर्फ देह का नहीं, सत्ता का भी रूपक है। गरीब मजदूर अपने मालिकों से शोषित होता है, जैसे पत्नी पति से। हर जगह एक ताकतवर है और एक बेबस। यही मानसिकता बलात्कार को जन्म देती है।
आजकल रिवर्स ट्रेंड भी शुरू हो चुका है जिसमें ताकतवर महिलाएं पुरुषों का शोषण कर रही हैं। मानसिकता वही है! धर्म के नाम पर भी औरतों का इस्तेमाल हुआ, कोई ‘साधु’ कहता है “पवित्र स्नान से पाप धुल जाएंगे”, और वहीं उसकी लिप्सा छिपी रहती है।
नेताओं के तमाशे, किसी एक केस को सेंसेशन बना देते हैं, मगर हज़ारों औरतों की खामोशी पर पर्दा डाल दिया जाता है। न जानें कितनी औरतें बेबसी, लाचारी या शर्मिंदगी की वजह से रेड लाइट एरियाज के कोठों में कैद हैं? व्यवसायीकरण और उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरे ने बहुत बड़ी संख्या में युवाओं को सेक्स ट्रेड में पुश कर दिया है!
अब सवाल उठता है कि हम कब जागेंगे? कानून बने, आंदोलन हुए, मोमबत्तियां जलीं, मगर दिमाग़ नहीं बदला। बच्चों को स्कूल में साइंस तो सिखाते हैं, मगर सम्मान नहीं। तकनीक ने मदद नहीं की, बल्कि अपराध को डिजिटल रूप दे दिया, रील, डीपफेक, रिवेंज पॉर्न अब नए हथियार हैं।
जरूरत है कि पुलिस को संवेदनशील बनाया जाए, अदालतें तेज़ हों, और समाज अपनी चुप्पी तोड़े। हमें बच्चों—लड़कों और लड़कियों—दोनों को सिखाना होगा कि ‘सम्मान’ कोई विकल्प नहीं, अनिवार्यता है।
बलात्कार सिर्फ अपराध नहीं, यह हमारी सभ्यता का आईना है, धुंधला, डरावना और शर्मनाक।






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