हवाई सफर में जानलेवा लापरवाहियां और सरकारी ढकोसले!


भारत की हवाई सेवाएं खौफनाक दिक्कतों के भंवर में फंसती जा रही हैं। उपभोक्ताओं का आत्मविश्वास डगमगा रहा है। सवाल यह है कि गड़बड़ियों और लापरवाही का बेइंतहा सिलसिला थमने का नाम क्यों नहीं ले रहा है।

वास्तव में, सरकारी डींगों के पीछे छुपा एक बदहवास मंज़र हमारे सामने है। तकनीकी खराबी, जर्जर ढांचा, ढीली निगरानी, बेपरवाह स्टाफ, और यात्री सुरक्षा की लगातार अनदेखी कोई नई बात नहीं है। शिकायतों का आंकड़ा हवाई जहाज़ों से भी ऊंचा उड़ रहा है और अग्रणी विमान सेवाएं इनमें सबसे आगे हैं।

अब तक सरकार अपनी ‘कामयाबियां’ गिनाती रही है। 2014 के 74 एयरपोर्ट 2023 में 148 हो गए। उड़ान योजना ने 469 मार्ग जोड़े। दिल्ली-मुंबई एयरपोर्ट को ‘कार्बन अक्रेडिटेशन मिला। मगर, ये सब ऊपरी दिखावा है, जैसे नासूर पर चिपकाया प्लास्टर। हक़ीकत यह है कि भारत का आसमान एक बड़े हादसे का मैदान बन चुका है। 

इंजन फेल, हाइड्रॉलिक लीक, क्रैक्ड विंडशील्ड, इमरजेंसी लैंडिंग... अब ये आम बात हो गई हैं। 2022 में डीजीसीए ने 400 से ज़्यादा सुरक्षा घटनाएं दर्ज कीं, और ये संख्या बढ़ती जा रही है। ये छोटी-मोटी गड़बड़ियां नहीं, बल्कि सिस्टम की सड़ांध है। पुराने जहाज़, ढुलमुल मरम्मत, और कंजूस एयरलाइंस, यही नियम बन गया है। उड्डयन कंपनियों पर बार-बार उंगलियां उठती हैं, मगर जुर्माना मज़ाक़िया है। कुछ करोड़ों की झिड़की, जो कंपनियों के लिए फुटकर खर्च है। डीजीसीए, जो ‘वॉचडॉग’ होना चाहिए, वह बेज़ार और बेबस है। यह एडवाइजरी जारी करता है, मगर एयरलाइंस उसे हवा में उड़ा देती हैं। जवाबदेही? बिल्कुल नदारद! 

पटना और नई दिल्ली के बीच हवाई यात्रा करते रहने वाले प्रो. पारस नाथ चौधरी का कहना है कि सरकार 148 एयरपोर्ट का ढिंढोरा पीटती है, मगर ज़्यादातर तो बिना सुविधाओं के ‘हवाई मैदान’ हैं। उड़ान के छोटे एयरपोर्ट में नेविगेशन सिस्टम, ट्रेंड स्टाफ, या अग्निरोधी सुरक्षा तक नहीं है। दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े एयरपोर्ट भी दबाव में चरमराते हैं। टूटी छतें, लंबी कतारें, सामान का इंतज़ार। यात्रियों को जानवरों की तरह ठेल दिया जाता है, और थके-हारे स्टाफ शिकायतों पर झल्लाते या सिर्फ़ कंधे उचकाते हैं। नतीजा? यात्री घंटों फंसे रहते हैं, मेडिकल इमरजेंसी नज़रअंदाज़ होती हैं, और परिवार उन मौतों पर रोते हैं जो टाली जा सकती थीं।"

सरकार उड़ान को ‘गेम-चेंजर’ बताती है, मगर यह अधपका सपना है। हां, 74 एयरपोर्ट जुड़े, मगर कई रूट बेमानी हैं। कम यात्री या ज़्यादा खर्च के चलते एयरलाइंस पीछे हट रही हैं। ‘सस्ते टिकट’? एक क्रूर मज़ाक, जब इन रूट के किराये बड़ी एयरलाइंस जितने ही हैं। ‘टिकाऊपन’ के दावे? झूठे, जब देरी के दौरान जहाज़ जमीन पर ईंधन जलाते हैं, और सुरक्षा से ज़्यादा ‘दिखावे’ पर ध्यान दिया जाता है। यह विकास बढ़े-चढ़े आंकड़े और अनदेखी की गई चेतावनियों की झूठी नींव पर खड़ा है।

कोई बड़ा हादसा होता है तो डीजीसीए हड़बड़ी में निर्देश जारी करता है। एयरलाइंस सुधार का वादा करती हैं और फिर सब ठंडे बस्ते में। 2020 के कोझीकोड क्रैश (21 मौतें) ने रनवे सुरक्षा और पायलट ट्रेनिंग की लापरवाही उजागर की, मगर कुछ नहीं बदला। जनता का गुस्सा ठंडा पड़ता है, और सब फिर से पुराने ढर्रे पर। एयर इंडिया का रिकॉर्ड—कैंसिलेशन, देरी, मिड-एयर खतरे—इसी बेरुख़ी की मिसाल है। डिब्बा खुल चुका है, और अब सरकारी प्रोपेगैंडा इसे बंद नहीं कर सकता। 

बेंगलुरु एयरपोर्ट से अक्सर यात्रा करने वाले युवा व्यवसायी जगन गुप्ता कहते हैं कि अब सख़्त कानून, नए जहाज़, मज़बूत ट्रेनिंग, और काम करते इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है। जब तक ये नहीं होता, हर टेकऑफ़ एक जुआ है, और हर लैंडिंग पर सांस थमी रहती है।



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