बेटी को आगे बढ़ाना सरकार के साथ समाज की भी है जिम्मेदारी

लाख विरोधों के बावजूद भारत के दो आमने-सामने खड़े प्रमुख दलों, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, के विचारों में कम से कम एक आश्चर्यजनक समानता है। दोनों ही पार्टियां देश की बेटियों के लिए चिंतित नजर आती हैं। बीजेपी के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, और कांग्रेस के ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’, जुमलों की ईमानदारी पर बेशक एक लंबी बहस हो सकती है, लेकिन भारतीय राजनीति का एक यह सच तो इन नारों से उभरकर आ ही जाता है कि देश की राजनीति बेटियों की चिंता किए बिना नहीं चल सकती है। तो, क्या आज के दिन हमारा समाज इस बात के लिए तैयार हो गया है कि बेटियों की चिंता और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए जरूरी प्रोत्साहन किसी भी कीमत पर देना कितना जरूरी है।

बात जब समाज की होती है तो उसमें विभिन्न धर्म और जातियां भी आती हैं। जातियों की बात होगी तो सामाजिक रूप से उनका नेतृत्व कर रहे जातियों के विभिन्न संगठनों की बात भी होगी। ‘वैश्य संगठन’, ‘पंडित महासभा’, ‘जाट संघ’ जैसे हमारे यहां लगभग हर जाति के कई-कई सामाजिक संगठन हैं, जो अपनी जाति के लोगों को इकट्ठा कर उस जाति विशेष की बड़ी-बड़ी समस्याओं के निराकरण का दावा करते हैं। शादी-विवाह से लेकर आपात स्थितियों में कम से कम उस जाति के लोगों की हरसंभव मदद का दावा इन संगठनों द्वारा किया जाता है। लेकिन, क्या इस तरह के संगठनों में इस तरह के लोग हैं जो नई सोच के साथ नए समाज की प्रतिस्थापना कर पाएं या सही मायने में कम से कम उस जाति के लोगों को ही सही नेतृत्व दे पाएं।

पिछले एक दशक के दौरान राजनीतिक रूप से बेटियों को आगे बढ़ाने के कई प्रयास हुए हैं। अब इनके परिणाम भी हमारे सामने आने लगे हैं। पिछले गणतंत्र दिवस पर परेड के दौरान सरकारी रूप से यह धारणा बनाने की कोशिश भी हुई कि देश के लगभग हर क्षेत्र में लड़कियों की भागेदारी बढ़ी है। लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर कई रूढ़िवादी परंपराएं टूटी हैं। पहले बड़े शहरों में और फिर दूसरी, तीसरी व चौथी पायदान के शहरों में अभिभावक अब लड़कियों के स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए ज्यादा जागरूक नजर आते हैं। शहरों में ही नहीं, बल्कि दूर-दराज के गांवों में भी जब कभी जाने का मौका मिला तो वहां भी अब घर की बेटियों के भविष्य के प्रति परिवार चिंतित नजर आते दिखे हैं। बेटियों को मौके देने के हर संभव प्रयास किए जाते दिखने लगे हैं लेकिन, फिर वही सवाल क्या हमारे समाज के हर वर्ग में में यह जागृति आ पाई है? और यदि नहीं तो बेटियों को बढ़ाए जाने के प्रयासों को लेकर कितने लोगों के मन बदले हैं।

अब यहां यह कहा जा सकता है कि सब नहीं तो कुछ तो बदले ही हैं। बाकी भी बदलेंगे। लेकिन, यदि जिन लोगों पर बदलाव की जिम्मेदारी है या उन्होंने यह जिम्मेदारी खुद अपने हाथों में ले ली है और वे ही लड़कियों को कमतर आंककर नेतृत्व का दावा करें तो परेशानी स्वाभाविक है।

हाल ही में एक ऐसे समाजसेवी से मिलना हुआ जो एक जाति विशेष के संगठन के बड़े पदाधिकारी हैं। विभिन्न मुद्दों पर बातचीत के बाद जब विवाह संबंधी मामलों पर चर्चा हुई तो उनके विचार जानकर बड़ी निराशा हुई। उनके साथ हुए इस संवाद से हमारे समाज में गहरी जड़ें जमाए पूर्वाग्रहों को और ज्यादा निकट से समझने का मौका हाथ लगा। उनका आज भी यह मानना था कि विवाह के बाद एक लड़की की मुख्य जिम्मेदारी अपने पति और ससुरालियों की भरपूर सेवा करना ही है। उनका कहना था कि एक महिला के धन कमाने की क्षमता अप्रासंगिक है क्योंकि वह अंततः एक गृहणी बनने के लिए ही नियत है। साथ ही, लड़कों की पढ़ाई और करियर बनाने में हुए निवेश की भरपाई करना भी कन्या पक्ष की ही जिम्मेदारी है। जब उनसे पूछा गया कि यदि लड़कियों की शिक्षा और करियर में भी उतना ही निवेश हो रहा हो क्या तब भी यह सिद्धांत सही है, तो एक बार उन्होंने बगलें जरूर झांकी, लेकिन उनका मन यह मानने को तैयार नहीं दिख रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या किसी दूसरी तरह से भी सोचा जा सकता है!

यह एक स्पष्ट संकेत है कि वास्तविक लैंगिक समानता हासिल करने के लिए हमें अभी और लंबा रास्ता तय करना है। यह कोई जरूरी नहीं है कि उनकी बात को ही सार्वभौमिक सच मान लिया जाए लेकिन इस घटना को भारतीय समाज की एक विशेष मन:स्थिति को जानने का ‘सैंपल’ तो माना जा सकता ही है।

हम लाख कहें कि हम बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए दिन-रात प्रयास कर रहे हैं, लेकिन कम नहीं तो ज्यादा और ज्यादा नहीं तो कम, हमारे समाज में अभी भी यह बात गहरी जड़ जमाए बैठी है कि लड़कियां लाख शिक्षित हो जाएं, करियर बना लें, लेकिन विवाह के बाद उनकी मुख्य जिम्मेदारी अपनी ससुराल में जाकर पति की सेवा और उसके ही करियर की चिंता करनी है। इतना ही नहीं, उसे अपनी जमापूंजी, अपने अभिभावकों से मिली पूंजी, जिसे ‘दहेज’ भी कहा जा सकता है, पर भी कोई अधिकार नहीं है। उसके साथ, यह सब भी ‘बाय डिफॉल्ट’ उसके पति के अधीन ही है।

बात अकेले उस व्यक्ति की नहीं है। हमारे घर-परिवारों में भी ज्यादातर लोग इसी तरह सोचते हैं कि लड़की लाख पढ़-लिख जाए, करियर बना ले, करना तो उसे घर का कामकाज ही है। भावी ससुरालियों का भी यही मानना है कि लड़की कितनी भी शिक्षित हो, सफल कामकाजी हो, विवाह तो उसके लाए हुए धन से ही होगा। इस धारणा के पीछे भी उनका एक अजीबोगरीब तर्क है। उनका कहना है कि उन्होंने अपना कमाया धन तो बेटों की शिक्षा और करियर में खत्म कर दिया है, अब जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहू जो भी साथ लाएगी, उसी के हिसाब से योजना बनेगी।

कमाल की बात यह है कि बेटे इन मामलों में आश्चर्यजनक चुप्पी साध लेते हैं। अभी बीते कुछ दिनों में, इस मामले पर कम से कम तीन बेटों से उनकी राय जानने का मौका मिला। हर बात में मुखर रहने वाले इन तीनों बेटों ने दबी जुबान में यह जरूर कहा कि वे खुद आत्मनिर्भर हैं, लेकिन यह बिल्कुल भी नहीं कहा कि चूंकि वह आत्मनिर्भर हैं इसलिए इस तरह की परिपाटी को तोड़ने का उनके सामने सुनहरा मौका है। वह इस परिपाटी को तोड़ेंगे और एक मिसाल सामने रखने की कूव्वत रखते हैं। अपने पिता और माता की बिल्कुल भी कद्र न करने वाले ये बेटे इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से बड़े मातृ और पितृ भक्त नजर आए।

इस मिसाल के आधार पर हम कह सकते हैं कि अपने बेटों को बेटियों का सम्मान करना सिखाना और गहरे व्याप्त पितृसत्तात्मक मापदंडों को चुनौती देने में सक्षम बनाना कितना जरूरी है, जिन्होंने सदियों से हमें पीछे रखा हुआ है।

दूसरी ओर, हममें से जो बेटियां होने का सौभाग्य रखती हैं, उनके पास भी बदलाव लाने का एक अनूठा अवसर है। हम बेटियां स्वयं को आत्मविश्वासी, स्वतंत्र और सशक्त बनाकर इस चुनौती को स्वीकार कर सकती हैं। हमें यह तय करना होगा कि हम बेटियां पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा थोपी गई अपेक्षाओं और सीमाओं के बोझ तले न दबें। इससे एक अधिक न्यायपूर्ण और समान समाज बनाने में मदद मिलेगी। यदि ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से परिस्थितियां बदलेंगी। हमारी पीढ़ी का एक हिस्सा, अगली पीढ़ी या उससे अगली पीढ़ी, जरूर इन सब बातों को समझने लगेगी। आखिर क्रांतियां किसी एक व्यक्ति या परिवार की सोच की परिणिति नहीं होती हैं बल्कि एक सामूहिक सोच के बाद जन्म लेती हैं। सही सोच के साथ लोग जुड़ते जाते हैं, कारवां बनता जाता है। और, फिर परिवर्तन हो जाता है...

Related Items

  1. भारतीय विमानन क्षेत्र भर रहा है समावेशिता की उड़ान

  1. ध्रुवीकरण भारतीय राजनीति का ‘गेम चेंजर’ है या ‘रोड ब्लॉक’!

  1. समाज में गिर रहे हैं मूल्य और बढ़ रही है बेशर्मी...



Mediabharti