लोकतंत्र की वर्तमान उदासी और युवाओं की सियासत से दूरी


क्या हमारा लोकतंत्र थक गया है? क्या बदलाव की चिंगारी बुझ चुकी है? बीते दशकों में और आजादी के संघर्ष के दौरान जिस ऊर्जा और जुनून से छात्र आंदोलनों ने लोकतंत्र को दिशा दी थी, वह आज पूरी तरह से ग़ायब है।

भारत हो या अमेरिका, फ्रांस हो या दक्षिण अफ्रीका, कहीं से भी अब वह युवा सैलाब नहीं उठता जो सत्ता के गलियारों को हिलाकर रख दे। हमारे कैंपस अब खामोश हैं जो कभी इंकलाब के अड्डे थे। जेएनयू का सन्नाटा चौंकाने वाला है।

बीएचयू, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे कैंपस, जो कभी विचारों की प्रयोगशालाएं थे, अब मद्धिम पड़ चुके हैं। छात्र संघ चुनाव या तो पूरी तरह बंद कर दिए गए हैं या उन्हें नाममात्र की रस्म में तब्दील कर दिया गया है। इससे युवा न सिर्फ सियासत से दूर हो रहे हैं, बल्कि नेतृत्व के जरूरी अनुभव से भी वंचित रह जाते हैं।

हमारा आज का नौजवान क्रांति के सपने नहीं देखता। उसका फोकस सिर्फ विदेश निकलना रह गया है। शैक्षिक गलियारे बेशर्म फैशन परेड या ड्रग, दारू, फ्री सेक्स के साथ नई जीवन शैली को बढ़ावा दे रहे हैं। पढ़ा-लिखा, नौजवान, ग्लोबल, डिजिटल हो गया है, लेकिन सियासी रूप से 'स्विच ऑफ' मोड में है। करियर, स्टार्टअप, विदेश जाने की प्लानिंग, रील बाजी, यू ट्यूबिंग, इंस्टाग्राम पर ब्रांडिंग, इन सब में वह इतना व्यस्त है कि उसे यह भी नहीं लगता है कि बदलाव की लड़ाई उसकी जिम्मेदारी है।

शायद, इसमें उसका दोष भी नहीं है। राजनीति को जिस तरह से भ्रष्टाचार, अवसरवाद और वंशवाद से जोड़ा गया है, उसने नौजवानों का भरोसा तोड़ा है। वे इसे 'गटर' मानते हैं, और 'सेल्फ-ग्रोथ' को तरजीह देते हैं।

राजनीतिक पार्टियों ने युवाओं को सिर्फ पोस्टर चिपकाने या ट्रेंड चलाने की मशीन बना दिया है। पारंपरिक दलों में बूढ़े चेहरों का वर्चस्व है। जो युवा नेता दिखते भी हैं, वे या तो परिवारवाद की देन हैं या सोशल मीडिया प्रोजेक्ट। हकीकत यह है कि कोई राहुल गांधी हो या अखिलेश, तेजस्वी यादव, उनकी उम्र भले कम हो, लेकिन वे उस सिस्टम का ही हिस्सा हैं जो युवा सोच को दबाता है।

दरअसल यह एक यूनिवर्सल ट्रेंड है, सिर्फ भारतीय समस्या नहीं है। ये खालीपन सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका में कभी प्रगतिशील राजनीति को युवा ऊर्जा मिली थी, लेकिन पार्टी स्ट्रक्चर ने उसे किनारे कर दिया। ब्रिटेन में लेबर पार्टी लंबे समय से युवा वर्ग से कट गई है। फ्रांस और लैटिन अमेरिका में बिखरे हुए विरोध हैं, लेकिन संगठित आंदोलन नहीं।

जहां 70 के दशक में क्रांति के लिए सड़कों पर उतरना जरूरी था, वहीं आज आंदोलन ‘#’ में सिमट गए हैं। डिजिटल एक्टिविज्म आसान है, लेकिन उसमें वो धड़कन नहीं जो शासन को चुनौती दे सके। रील्स और रिट्वीट से क्रांति नहीं होती।

तो फिर क्या हो अब? इसके लिए विश्वविद्यालयों को चाहिए कि छात्रसंघ चुनाव बहाल करें, बिना सरकारी दखल और डर के। राजनीतिक दलों को अपने दरवाजे युवाओं के लिए खोलने होंगे बल्कि न सिर्फ दिखावे के लिए। स्कूल और कॉलेज स्तर पर लोकतांत्रिक शिक्षा को पुनर्जीवित करना होगा।

विचारधाराओं को फिर से प्रासंगिक बनाना होगा, सिर्फ चुनाव जीतने की रणनीतियों से राजनीति नहीं चलती। आज जब हम चारों ओर तानाशाही प्रवृत्तियों, सेंसरशिप और पॉपुलिज्म का उभार देख रहे हैं, तो यह खामोशी खतरनाक है। जब युवा सवाल पूछना बंद कर दें, तो सत्ता बेलगाम हो जाती है।0

इसलिए, अब वक्त है कि फिर से कैंपस में बहस हो, पोस्टर लगें, नारों की गूंज उठे। नहीं तो लोकतंत्र की यह धीमी धड़कन एक दिन थम भी सकती है।



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