‘नीला ड्रम’, ‘सीमेंट बैग’, और ‘सांप के काटने की साज़िश’, ये कोई थ्रिलर उपन्यास की कहानियां नहीं हैं, बल्कि हाल के वर्षों में भारत की शहरी हकीकत में घटित चौंकाने वाले आपराधिक मामले हैं। और समानता? इन सभी में पत्नियां, अपने प्रेमियों की मदद से, अपने पतियों की हत्या की दोषी पाई गईं।
हाल ही में कुछ ऐसे वाक़्यात सामने आए हैं जिनमें पत्नियों ने अपने शौहरों से छुटकारा पा लिया। इससे एक खतरे की घंटी बजी है, क्योंकि हिंदुस्तानी शादियों की मज़बूती और पवित्रता खतरे में नज़र आ रही है। ऐसे मामलों में एक चिंताजनक इज़ाफ़ा देखा जा रहा है जहां औरतें, अक्सर अपने आशिकों की मिलीभगत से, अपने शौहरों के खिलाफ घरेलू हिंसा के कामों में शामिल रही हैं। यह परेशान करने वाला रुझान धोखे और साज़िश के एक पेचीदा खेल को उजागर करता है, जहां शौहर को रास्ते से हटाने के लिए जज़्बाती और जिस्मानी तौर पर ज़ुल्म किया जाता है। औरतें, जो खुद को कड़वे रिश्तों में फंसी हुई महसूस करती हैं या आर्थिक फ़ायदे की तलाश में हैं, इन हिंसक हरकतों की योजना और अंजाम देने के लिए अपने करीबी रिश्तों का नाज़ायज़ फ़ायदा उठा सकती हैं।
अंग्रेजी में पढ़ें : Evolving dynamics of domestic violence in India
सामाजिक टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "ऐसी घटनाएं एक सोची-समझी रणनीति के तहत होती हैं। इसमें आशिक द्वारा मदद, हौसला-अफ़ज़ाई, या यहां तक कि सीधे तौर पर वे ज़ुर्म में शरीक होते हैं। इसके गहरे असर होते हैं। इससे न सिर्फ शौहरों को जिस्मानी नुक़सान पहुंचता है बल्कि बर्दाश्त की सीमा से बाहर जज़्बाती ज़ख़्म और समाजी दाग भी होते हैं। ये वाक़्यात घरेलू हिंसा की रिवायती सोच को चुनौती देते हैं। ये बताते हुए कि ज़ुल्म कई मुख्तलिफ शक्लों में हो सकता है और ताक़त व नियंत्रण की गतिकी सिर्फ एक ही तक सीमित नहीं है।"
बदलते हुए रहन-सहन और शहरीकरण की वजह से भारत का सामाजिक ढांचा, जो लंबे अरसे से रिवायत, संयुक्त परिवारों और पुरुष-प्रधान रवैयों के धागों से बुना गया था, आज एक बड़ी तब्दीली से गुज़र रहा है। कभी सामाजिक स्थायित्व का स्तंभ रहा पुरातन ख़ानदानी निज़ाम आधुनिक दबावों के आगे कमज़ोर पड़ रहा है। इनमें से एक परेशान करने वाला पहलू घरेलू हिंसा के उन मामलों में तेज़ी है जहां पत्नियां नहीं बल्कि शौहर ज़ुल्म का शिकार होते हैं।
सामाजिक विचारक आरईसी पांडे के मुताबिक, इसकी वजह दहेज-मुतालिका कानूनों के नाज़ायज़ इस्तेमाल, तलाक़ के इर्द-गिर्द समाजी बदनामी के कम होने और न्यूक्लियर परिवारों पर दबाव के साथ मिलकर, ताक़त के ढांचों का एक पेचीदा पुनर्गठन हो सकता है।
हाल की घटनाएं कई खतरनाक रुझानों को उजागर करती हैं। अप्रैल महीने में, मेरठ में एक दिल दहला देने वाली घटना ने पूरे मुल्क को हैरत में डाल दिया। गैर-मर्दाना ताल्लुक़ में उलझी हुई एक औरत ने कथित तौर पर अपने शौहर का गला घोंट दिया और इसे सांप के काटने का मामला बताने की कोशिश की। इससे पहले, उसी इलाके में कुख्यात ‘नीला ड्रम’ वाक़या हुआ था, जहां एक औरत और उसके आशिक ने उसके शौहर का क़त्ल कर दिया। उसकी लाश को एक नीले ड्रम में ठूंस दिया और अपने रिश्ते को छुपाने के लिए उसे ठिकाने लगा दिया।
इसी तरह, सीमेंट के बोरों में बंद लाशों की खबरें सामने आई हैं। सबूत मिटाने की इस भयानक तरकीब को ‘सीमेंट बैग सिंड्रोम’ का नाम दिया गया है। ये वाक़्यात एक ‘पैटर्न’ को उजागर करते हैं। वित्तीय आजादी और बदलते समाजी रस्मों-रिवाजों से हौसला अफ़ज़ाई पाने वाली औरतें, ज़्यादा से ज़्यादा मुजरिम के तौर पर शामिल पाई जा रही हैं, और शौहर उनके गैर-मर्दाना ताल्लुकात की खोज में ज़ाया हो रहे हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं, "औरतों का सशक्तिकरण, कई क्षेत्रों में एक कामयाबी होने के बावजूद, इसका एक स्याह पहलू भी है। माली आज़ादी और शहरी जीवनशैली ने औरतों को ज़्यादा स्वतंत्रता दी है। लेकिन, कुछ मामलों में, इसने धोखेबाज़ या हिंसक रवैये का रूप भी ले लिया है। ठुकराए हुए आशिक, अक्सर मिलीभगत करते हैं, हालात को और बिगाड़ देते हैं, और उन औरतों के साथ एक घातक गठजोड़ बना लेते हैं जो अपने शौहरों को रास्ते से हटाना चाहती हैं।"
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के 2022 के आंकड़ों में पहले से ही मर्दों के खिलाफ अपराधों में इज़ाफ़ा देखा गया है। हालांकि, इस तरह की लक्षित हिंसा के खास आंकड़े समाजी बदनामी और कानूनी पूर्वाग्रहों के कारण कम रिपोर्ट किए जाते हैं। मर्दों के हुक़ूक़ के कार्यकर्ता तर्क देते हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए जैसे कानून, जो औरतों को दहेज से जुड़ी क्रूरता से बचाने के लिए बनाए गए हैं, अक्सर शौहरों और उनके परिवारों को परेशान करने के लिए नाज़ायज़ तौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं। एक सरकारी रिपोर्ट में पाया गया कि दूसरे कानूनों के मुकाबले 498ए का कोई गैर-मुनासिब इस्तेमाल नहीं हुआ, फिर भी हाई-प्रोफाइल मामले हथियारबंद कानून की धारणा को बढ़ावा देते हैं, जिसमें निजी स्कोर बराबर करने या तलाक़ में तेज़ी लाने के लिए झूठे इल्ज़ाम लगाए जाते हैं।
शिक्षाविद टीपी श्रीवास्तव कहते हैं, "संयुक्त परिवार, जो कभी वैवाहिक कलह के खिलाफ एक ढाल थे, अब जंग के मैदान बन गए हैं। मां-बाप, जो झगड़ों में सुलह कराने के आदी थे, खुद को किनारे या बदनाम पाते हैं। एकल परिवारों और व्यक्तिवादी मूल्यों के बढ़ने से उनका अधिकार कमज़ोर हो गया है, जिससे उन्हें सशक्त बहुओं या कड़वी शादियों में फंसे बेटों से जुड़े झगड़ों से निपटने में मुश्किल हो रही है।
सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, "हमने बेटों की खुशियां देखी थीं, अब बहुओं के वकीलों से डरते हैं। हमारे समय में रिश्ते टूटते नहीं थे, अब अदालतों में लाइनें लगी रहती हैं। अब तलाक एक सामाजिक अपराध नहीं रहा, लेकिन यह आज़ादी दोधारी तलवार है। कहीं यह मुक्ति है, तो कहीं इसे निजी दुश्मनी निकालने का हथियार भी बना लिया गया है।"
रिटायर्ड बैंकर टी सुब्रमण्यन कहते हैं, "तलाक़, जो कभी एक समाजी ऐब था, अब तेज़ी से आम होता जा रहा है। वह बदनामी जिसने कभी औरतों को ज़ालिम शादियों से निकलने से रोका था, अब फीकी पड़ गई है। यह आज़ादी औरतों को नाखुश रिश्तों से निकलने में मदद करती है, लेकिन कुछ को कानूनी कमज़ोरियों का फायदा उठाने या रिश्ते तोड़ने के लिए इंतहाई कदम उठाने का हौसला भी देती है।"
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2017 से 2022 तक तलाक़ के मुकदमों में 33.9 फीसदी की तेज़ी इस बदलाव को दर्शाती है। अदालतें मुकदमों से भरी पड़ी हैं, और ‘मर्द बनाम औरत’ की कहानी कानूनी मदद की कमी और दोषपूर्ण जांच जैसे सिस्टमिक मुद्दों पर पर्दा डालती है।
इस समस्या से निपटने के लिए इसे बारीकी से समझने की ज़रूरत है। कानूनी सुधारों में औरतों के लिए हिफाज़त और नाज़ायज़ इस्तेमाल के खिलाफ सुरक्षा उपायों के बीच संतुलन बनाना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी व्यक्ति को नाइंसाफी से निशाना न बनाया जाए।
सामाजिक कार्यकर्ता राजीव गुप्ता सुझाव देते हैं, "भारतीय समाज बदलाव के दौर से गुजर रहा है। जहां एक ओर महिलाएं नई ऊंचाइयों को छू रही हैं, वहीं कुछ घटनाएं हमें सचेत करती हैं कि सशक्तिकरण के साथ जिम्मेदारी भी ज़रूरी है। घरेलू हिंसा सिर्फ एक तरफ़ा कहानी नहीं है, अब इसे हर कोण से समझने की ज़रूरत है।"
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