दस साल पहले सत्ता के गलियारों में बड़े ठाठ से घोषणाएं हुई थीं — गंगा नदी को निर्मल बनाएंगे, भारत को स्वच्छ करेंगे, और सौ शहरों को स्मार्ट बना देंगे। जनता ताली बजाती रही, उम्मीदें पालती रही। लेकिन, अब जब ज़मीनी सच्चाई से पर्दा उठ रहा है, तो लगता है कि सपने और हकीकत के बीच का फासला कम नहीं हुआ है।
गंगा, जो आस्था का प्रतीक है, आज भी जहर उगल रही है। नमामि गंगे मिशन को लेकर खूब ढोल-नगाड़े बजे थे। 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘भारत की जीवनरेखा’ कहकर इसे पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। करीब 40,000 करोड़ रुपये बहा दिए गए, लेकिन गंगा की धारा में अब निर्मलता नहीं, केवल निराशा बह रही है।
अंग्रेजी में पढ़ें : Failed Tale of Modi Missions: Rivers are weeping, Cities are gasping
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट बताती है कि गंगा का 60 फीसदी पानी स्नान योग्य भी नहीं। वाराणसी जैसे तीर्थ में 80 फीसदी सीवेज बिना ट्रीटमेंट के सीधे गंगा में जा रहा है। हरिद्वार से नीचे गंगा की धारा सिकुड़कर केवल 30 फीसदी रह गई है। और, उत्तराखंड की चर्मशोधन इकाइयां तथा यूपी के रासायनिक कारखाने मानो सरकारी नियमों पर थूकते हैं — न जांच, न कार्रवाई। कहने को ‘पुनर्जीवन’, लेकिन, असल में गंगा आज भी तड़प रही है। उधर, यमुना नदी, समूचे बृज मंडल में दर्द से कराह रही है।
दूसरा बड़ा प्रोजेक्ट, स्वच्छ भारत मिशन भी एक बड़ी कथा बना दिया गया। साल 2014 में जब इसकी शुरुआत हुई तो कहा गया कि भारत को खुले में शौच से मुक्त कर देंगे। आंकड़े कहें कि 10 करोड़ से ज़्यादा शौचालय बने, भारत 2019 तक खुले में शौच से हो गया। मगर ज़मीन पर जाकर देखो। राजस्थान, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में आज भी ग्रामीण खुले में शौच करने को मजबूर हैं।
एनएसएसओ की रिपोर्ट ने तो पोल खोलकर रख दी। 40 फीसदी ग्रामीण अब भी शौचालयों से दूर हैं। क्यों? क्योंकि शौचालय बने तो सही, लेकिन बिना पानी और सीवरेज सिस्टम के वे कब्रगाह जैसे गड्ढे बन गए। और, जो दलित मैला उठाते हैं, वे अब भी सीवरों में घुटकर मर रहे हैं। साल 2023 में दिल्ली में तीन सफाईकर्मी ऐसे ही मरे। 2014 से अब तक 600 से ज़्यादा सफाईकर्मियों की मौत हो चुकी है, लेकिन ‘मैनुअल स्कैवेंजिंग’ पर बैन केवल कागज़ों में है।
अब बात करें उस भव्य सपने की, जिसका नाम था—स्मार्ट सिटी मिशन। 2015 में शुरू हुआ, और सौ शहरों को ‘विश्वस्तरीय’ बनाने का वादा किया गया। डिजिटल इंडिया, स्मार्ट रोड, वाई-फाई जोन, सोलर एनर्जी — सबकुछ सुनने में काबिल-ए-तारीफ़। लेकिन हक़ीक़त में, ये मिशन ठेकेदारों की चांदी बन गया। 7000 से ज़्यादा परियोजनाएx शुरू तो हुईं, पर सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि 70 फीसदी प्रोजेक्ट तय समय पर पूरे ही नहीं हुए। 12,000 करोड़ रुपये बिना टेंडर के बांटे गए, कई शहरों में सेंसर लगे तो ज़रूर, पर एक साल में ही टूट गए।
‘स्मार्ट’ का मतलब अगर सिर्फ फूलदान लगाना और मोबाइल ऐप बनाना है, तो फिर यह देश के साथ एक मज़ाक है। आज देश के शहरों की हालत यह है कि न सफाई है, न ट्रैफिक का हल, और न ही कोई जवाबदेही। मिशन चुपचाप बंद हो गया, लेकिन बर्बादी की दास्तां शहरों की दीवारों पर अब भी लिखी है।
तीनों मिशनों में एक बात साझा है—सियासी दिखावा और अफसरशाही का बेलगाम खेल। पैसा खर्च हुआ, नतीजे नदारद। योजनाएं बनीं, पर लागू करने का सिस्टम सड़ गया। कैपेसिटी बिल्डिंग, वर्कशॉप, सेमिनार — सरकारी तामझाम पर अरबों खर्च हुए, लेकिन आम आदमी की ज़िंदगी वैसी की वैसी रही।
सरकारें अब ‘अमृत 2.0’, ‘गंगा अक्षय’, ‘स्वच्छ भारत 2.0’ जैसे नए नामों से फिर वही सपने बेच रही हैं। लेकिन जिन ज़ख्मों पर मरहम न लगाया गया हो, उन पर फिर से मेकअप करने से क्या होगा? गांवों की गलियां अब भी गंदगी से अटी पड़ी हैं, शहरों में नालियां उफान मारती हैं और नदियां अब सिर्फ गंदे नाले बनकर रह गई हैं। गंगा जैसी पवित्र धारा अब अफ़सोस और शर्म की प्रतीक बन चुकी हैं।
सच में—'न गंगा साफ़ हुई, न भारत; बस वादों की रंगोली बिछती रही और हकीकत की मिट्टी कुचली जाती रही।‘ योजनाओं की चकाचौंध में सच्चाई का सूरज कहीं गुम हो गया है।
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