पतियों द्वारा आत्महत्याओं की कुछ दुखभरी खबरों ने सुप्त भारतीय समाज में भूचाल सा ला दिया है। पत्नियों पर दोष मढ़ा जा रहा है कि उनकी फरमाइशों, मानसिक तनाव या उत्पीड़न से टूटने के पश्चात कई पतियों के सामने केवल आत्महत्या के रास्ते समाज से रुखसत होने का ही एक मात्र विकल्प बचा है। प्रतिदिन दस से ज्यादा आत्महत्याएं शादी की वजह से हो रही हैं।
बेंगलुरु के एक टेकी की पत्नी और मां व भाई आदि अभी जेल में हैं। क्या वास्तव में शिक्षित कामकाजी भारतीय महिलाएं सशक्त हो चुकी हैं? आंकड़े बता रहे हैं कि परिवार अदालतों में मुकदमों के अंबार लगे हुए हैं। आए दिन तारीखों पर आने वाले पति-पत्नियों के बीच वहां झगड़े होते हैं।
अंग्रेजी में पढ़ें : Changing Gender Dynamics: A deep dive into marital strife...
समाजशास्त्री बता रहे हैं कि अलगाव, टकराव, तलाक, लिविंग-इन, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, एकल मां, सरोगेट मदर जैसे कई अन्य तरीके के प्रयोग नित दिन बढ़ रहे हैं। प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि समकालीन भारत में, लिंग परिदृश्य एक गहन परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, जो विकसित होते सामाजिक मानदंडों और पारंपरिक पुरुष प्रतिरोध के बीच असंगति द्वारा चिह्नित हैं। हाल की घटनाओं ने लिंग पूर्वाग्रह को लेकर बहस को उत्प्रेरित किया है, जैसा कि परेशान पतियों से जुड़ी आत्महत्याओं के दुखद मामलों के बाद सार्वजनिक और न्यायिक टिप्पणियों में उछाल से उजागर हुआ है। कथाएं एक विपरीत परिदृश्य के साथ सामने आती हैं। कुछ पुरुष सार्वजनिक रूप से अपनी परेशानी के लिए अपनी पत्नियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। एक गहरा सामाजिक परिवर्तन चल रहा है, जो शिक्षित, कार्यरत महिलाओं की आकांक्षाओं से प्रेरित है।
डॉ ज्योति खंडेलवाल कहती हैं कि ऐतिहासिक रूप से, भारत में लिंग पूर्वाग्रह गहराई से जड़ जमाए हुए हैं। इनमें पितृसत्तात्मक मानदंड सामाजिक गतिशीलता और पारिवारिक संरचनाओं को निर्धारित करते हैं। फिर भी, जैसे-जैसे महिलाएं तेज़ी से कार्यबल में शामिल हो रही हैं, घिसे-पिटे कथ्यों को फिर से लिखा जा रहा है।
बेंगलुरु की डॉ शालिनी के मुताबिक आज अनेक महिलाएं सशक्तिकरण को तलाश कर रही हैं। वे विवाह और मातृत्व से परे स्वतंत्रता, समानता और अवसरों की विशेषता वाली जीवनशैली की ख्वाइश रखती हैं। एक रोचक बदलाव हो रहा है। महिलाएं परिवार इकाई के भीतर अपनी भूमिकाओं पर पुनर्विचार कर रही हैं। बड़े परिवारों और अधीनस्थ पदों की पारंपरिक अपेक्षाओं से दूर जा रही हैं। यह विकास न केवल एक व्यक्तिगत जागृति की ओर इशारा करता है, बल्कि लिंग मानदंडों की एक व्यापक, सामूहिक पुनर्परिभाषा की ओर भी संकेत करता है।
दूसरी नजर से देखें तो पति की आत्महत्या की कहानी जटिल मुद्दों का सरलीकरण करती है। सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर के अनुसार, अक्सर गहरी सामाजिक समस्याओं को संबोधित करने के बजाय पत्नियों को गलत व अनुचित तरीके से दोषी ठहराती है। पुरुषों के बीच मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को स्वीकार करना और उनका समाधान करना भी महत्वपूर्ण है। महिलाओं को दोषी ठहराने का अति सरलीकृत लेंस ऐसी त्रासदियों में योगदान देने वाले प्रणालीगत कारकों से ध्यान हटाता है।
हाल ही की घटनाओं पर पब्लिक हस्तियों और अदालतों की प्रतिक्रिया घरेलू रिश्तों में शामिल पेचीदगियों के बारे में बढ़ती जागरूकता को दर्शाती है। यह नई आवाज़ अक्सर हाई-प्रोफाइल मामलों की प्रतिक्रिया में सामने आती है, जो लैंगिक मुद्दों के आसपास न्यायसंगत चर्चाओं के महत्व को उजागर करती हैं।
हालांकि, सिर्फ़ महिलाओं को दोषी ठहराना वैवाहिक कलह और सामाजिक अपेक्षाओं की बहुआयामी प्रकृति को नज़रअंदाज़ करता है। बिहार में पारिवारिक समस्याओं का अध्ययन कर रहे डॉ टीपी श्रीवास्तव का कहना है कि यह एक अति सरलीकरण है, जिसे चुनौती दी जानी चाहिए, क्योंकि यह समानता की खोज में महिलाओं द्वारा की गई वास्तविक प्रगति को नकारने की धमकी देता है।
इस मंथन के दौर में हमारा समाज, बदलती गतिशीलता से जूझ रहा है। शहरी परिदृश्य में ऐसी महिलाएं तेज़ी से सामने आ रही हैं जो न सिर्फ़ समय के साथ बदल रही हैं बल्कि आगे भी बढ़ रही हैं। उच्च शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता की पहचान वाली मेट्रो संस्कृतियां अब नए मानक गढ़ रही हैं।
समाज सेविका विद्या झा कहती हैं किपोषण, स्वास्थ्य सेवा और जीवनशैली विकल्पों तक बेहतर पहुंच एक जनसांख्यिकीय बदलाव में योगदान दे रही है, जहां महिलाओं की भूमिकाएं तेज़ी से विकसित हो रही हैं। विकास केवल आर्थिक वृद्धि का एक पैमाना नहीं है बल्कि यह एक प्रभावी गर्भनिरोधक साबित हो रहा है, जिससे छोटे, अधिक शिक्षित परिवार बन रहे हैं जो बदलते मूल्यों को दर्शाते हैं।
फिर भी, ऐसी प्रगति प्रतिरोध के बिना नहीं आती है। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म युद्ध के मैदान बन गए हैं। वहां परंपरावादी अपनी आशंकाएं व्यक्त करते हैं, और सार्वजनिक प्रवचन अक्सर महिला सशक्तिकरण की प्रशंसा और लिंग भूमिकाओं के प्रति उदासीनता के बीच झूलते रहते हैं। यह तनाव न केवल व्यक्तिगत पहचान के लिए बल्कि इन नई भूमिकाओं की सामाजिक स्वीकृति के लिए भी चल रहे संघर्ष की ओर इशारा करता है।
वास्तव में, ऐसे संवाद और वार्तालापों को बढ़ावा देना ज़रूरी है, जो विभाजन के बजाय सहयोग और समझ को बढ़ावा दें। पुरुषों को महिलाओं की उभरती भूमिका में शामिल होने और उसका समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित करना एक अधिक समतापूर्ण समाज के निर्माण में आवश्यक है।
सामाजिक सलाहकार मुक्ता गुप्ता कहती हैं कि भारत में बदलता लिंग परिदृश्य एक युद्ध का मैदान नहीं है, बल्कि एक ऐसे भविष्य की ओर एक साझा यात्रा है जहां पुरुष और महिला दोनों सम्मान, समझ और समानता के साथ सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। लिंग गतिशीलता का कायापलट केवल कुछ लोगों के लिए नुकसान की कहानी नहीं है, बल्कि विविध भूमिकाओं और साझा आकांक्षाओं से समृद्ध दुनिया की एक झलक है।
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