जगदीशचंद्र बोस आधुनिक भारत के प्रथम महान वैज्ञानिक थे। उन्होंने यह सिद्ध करके सारे संसार को आश्चर्यचकित कर दिया था कि पेड़-पौधों में भी संवेदनाएं होती है। वे भी मानव तथा अन्य जीवधारियों के समान सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, प्रकाश, शोर व अन्य ऐसे ही कारकों का अनुभव करते हैं।
भारत माता का यश विश्व के कोने-कोने में पहुचांने वाले बोस अत्यंत स्वाभिमानी थे। वह किसी भी परिस्थिति में अपने स्वाभिमान को जरा सी भी ठेस नहीं लगने देते थे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी का अध्ययन करने के बाद वह कैब्रिज विश्वविद्यालय चले गए थे। सन् 1884 में वहां से स्नातक की डिग्री लेने के बाद वह भारत लौट आए। यहां प्रेजीडेसीं कॉलेज में भौतिकी के प्राध्यापक के पद पर उनकी नियुक्ति की गई। उस समय अंग्रेजों का शासन था तथा अंग्रेज भारतीयों का अपमान करने का कोई मौका नहीं चूकते थे। भारतीयों के साथ अंग्रेजों द्वारा किए जाने वाला भेदभाव जगजाहिर था। यहां तक कि किसी भी भारतीय प्रोफेसर को यूरोपीय प्रोफेसर की तुलना में एक-तिहाई वेतन कम दिया जाता था।
इतना ही नहीं, बोस क्योंकि अस्थायी थे, इसलिए उन्हें यूरोपीय प्रोफेसरों के वेतन की तुलना में केवल आधा वेतन ही मिलता था। हालांकि, काम उतना ही करना होता था। इससे बोस क्षुब्ध हो गए। उन्होंने कहा कि समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाना चाहिए। उनका कहना था, ''मैं वेतन लूंगा तो पूरा, नहीं तो वेतन लूंगा ही नहीं।''
... और सचमुच उन्होंने पूरे तीन साल तक वेतन लिया ही नहीं। आर्थिक तंगी के कारण तत्कालीन कलकत्ते का महंगा मकान छोड़कर उन्हें शहर से दूर एक सस्ता सा मकान लेना पड़ा।
कलकत्ता काम पर जाने के लिए वह पत्नी सहित स्वयं नाव खेकर हुगली नदी पार करते। पत्नी नाव खेकर वापस घर आ जातीं और शाम को पुन: वह उन्हें लेने के लिए नाव लेकर पहुंचतीं। इतना सब सहने के बावजूद वह अपने निश्चय से डिगे नहीं।
अंतत: अंग्रेजों को हार माननी पड़ी और उन्हें अंग्रेजों के बराबर ही वेतन देना स्वीकार किया गया।






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