राजस्थान में अलवर जिले की राजगढ़ तहसील स्थित बरवा की डूंगरी की तलहटी स्थित नारायणी माता भारत के प्रसिद्ध लोक तीर्थों में से एक है।
11वीं सदी के दौरान प्रतिहार शैली में निर्मित इस मंदिर के बारे में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। उनमें से एक के अनुसार, यहां नारायणी नामक महिला अपने पति के साथ सती हुई थी। कहा जाता है कि अलवर के मौरागढ़ निवासी विजयराम के विवाह के काफी वर्षों तक संतान नहीं हुई थी तब विजयराम और उनकी पत्नी रामवती की शिव भक्ति से एक कन्या करमेती का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी विक्रमी संवत 1006 को हुआ। उन्हें ही नारायणी माता के नाम से जाना जाता है।
युवावस्था में नारायणी का विवाह राजोरगढ़ के गणेश के साथ हुआ। विदाई के बाद नारायणी आवागमन के कोई उपयुक्त साधन नही होने के कारण अपने ससुराल पैदल जा रही थीं। गर्मियों के दिन थे और धूप भी इतनी तेज थी की ओर पैदल चलना मुश्किल था। ऐसे में उन्होंने थोड़ा आराम करके आगे का रास्ता तय करने के बारे में सोचा।
एक बरगद के पेड़ के नीचे जाकर दोनो सो गए। दोनों पूरी तरह थक चुके थे इसलिए सोते ही उन्हें गहरी नींद आ गई। सोते हुए नारायणी के पति को एक सांप ने डस लिया जिससे उनके पति की मृत्यु हो गई। जब सूर्य अस्त होने लगा तो नारायणी नींद से उठी। उन्होंने उठकर अपनी पति को आवाज लगाई, लेकिन कोई जवाब नही मिला तो नारायणी ने उनके समीप जाकर उन्हें उठाने की कोशिश की। लेकिन, उनकी मृत्यु हो चुकी थी। उसी समय मीणा जाति के कुछ लोग अपने जानवरों को लेकर अपने घर जा रहे थे। नारायणी ने उन युवकों से अपने पति की मृत्यु की बात बताई और अंतिम संस्कार के लिए जंगल से लकड़ियां इकट्ठी करने में मदद मांगी। यह सुनकर उन युवकों ने जंगल से लकड़ी इकट्ठी कर चिता की तैयारी कर दी। नारायणी अपने पति के शव को गोद में रखकर वहीं सती हो गई। उसी समय आकाशवाणी हुई, “हे ग्वालों! तुमने मेरी सहायता की है, इस उपकार के बदले तुम्हें क्या चाहिए! तो ग्वालों ने कहा कि माताजी इस जंगल में पानी की कमी है। तब माताजी ने कहा कि कोई भी ग्वाला एक लकड़ी लेकर इस स्थान से भागे और पीछे मुड़कर न देखे। जहां तक वह भागते हुए जाएगा उस स्थान तक जलधारा पहुंच जाएगी। लेकिन, वह ग्वाला केवल तीन किलोमीटर तक ही दौड़ सका। इतना दौड़ने के बाद उसका मन रहा नहीं और उसने पीछे देख लिया। जल की धारा वहीं पर रुक गई।
वर्तमान में सर्प द्वारा काटे गए स्थान पर माताजी का भव्य मंदिर बना हुआ है। वहीं से एक जलधारा अनवरत रूप से निकल रही है और वह केवल तीन किलोमीटर तक ही बहती है। रहस्यमई ढंग से पानी निकलने को लेकर यहां कई खोज हो चुकी हैं, लेकिन आज तक यह पता नहीं लगाया जा सका है कि यह पानी कहां से आ रहा है और कब तक आएगा।
जहां पर नारायणी सती हुई वहाँ मन्दिर का निर्माण 11वीं सदी में प्रतिहार शैली से करवाया गया। मंदिर के गर्भगृह में माता की मूर्ति लगी हुई है। मंदिर के ठीक सामने संगमरमर का एक कुण्ड है। मंदिर के ठीक पीछे से एक प्राकृतिक जलधारा बहकर संगमरमर के कुण्ड में पहुंचती है। उस समय वहा पर राजा दुलहरायजी का शासन था और नांगल पावटा के जगीरदार ठाकुर बुधसिंह ने नारायणी माता के मंदिर की स्थापना कराई। उन्होंने पानी के कुंडों की स्थापना भी कराई। बाद मे अलवर नरेश जय सिंह ने पानी के कुंडों को बड़े आकार में परिवर्तित कर दिया और इसके बाद सेन समाज ने भी समय-समय पर कई जीर्णोद्धार कराए।
मंदिर के कुंड के पानी को लोग गंगा की तरह पवित्र मानते हे। लोग इस पानी को बर्तन में भरकर अपने घर भी ले जाते हे। वे पानी के कुंड मे स्नान भी करते हैं। मान्यता है कि स्नान करने से कई प्रकार के रोगो से मुक्ति भी मिल जाती है और पाप भी धुल जाते हैं। मंदिर में लोग दूर-दूर से दर्शन करने के लिए आते हैं और यहां पर भजन-कीर्तन करते है।
यहां प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल एकादशी को नारायणी माता का मेला लगता है। यद्यपि नारायणी माता का मंदिर सभी वर्गों के लिए और सम्प्रदायों के लिए श्रद्धा का स्थल है फिर भी सेन समाज के लोग इसे अपनी कुल देवी मानते हैं।
वर्तमान में यह स्थान अलवर जिले से दौसा की तरफ जाते समय विश्व प्रसिद्ध भानगढ़ किले से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह अलवर जिले से लगभग 80 किलोमीटर की दूर स्थित है। जयपुर से यह मंदिर 90 किलोमीटर है और दौसा से 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
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