लोकतंत्र को प्रभावी ढंग से चलाने के लिए एक प्रशिक्षित और प्रतिभाशाली संसदीय ढांचा और प्रणाली की आवश्यकता होती है और इस ढांचे व तंत्र को बनाने के लिए पूर्ण प्रशिक्षित राजनेताओं की...। एक स्वस्थ लोकतंत्र में चुने हुए जन प्रतिनिधि यदि पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत और प्रतिभाशाली हों तो उस देश को तरक्की के रास्ते पर जाने और 'विश्वगुरु' बनने से कोई नहीं रोक सकता है।
चुने हुए जन प्रतिनिधि की भाषा शैली, ज्ञान का स्तर और बेदाग छवि, उसको जनता से जोड़ने में सहायक होते हैं। समझदारी और संवेदनशीलता के गुणों वाले प्रतिनिधि लोगों की अपेक्षाओं का प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, ठोस नीतियां बना सकते हैं और सुशासन सुनिश्चित कर सकते हैं। ऐसे प्रतिनिधि लोकतंत्र की आधारशिला हैं, क्योंकि वे कानून बनाने, कार्यकारी शाखा की देखरेख करने और सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए जिम्मेदार होते हैं।
Read in English: Politicians in India need training in the current democratic system
दुनियाभर के कई लोकतंत्रों को जन प्रतिनिधियों के रूप में सेवा करने के लिए उच्च योग्य व्यक्तियों को आकर्षित करने और बनाए रखने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इससे विशेषज्ञता की कमी, खराब निर्णय तथा सरकार व मतदाताओं के बीच संबंध टूट रहे हैं, दूरियां बढ़ रही हैं।
यहां भारत में एक ओर हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली अपने अमृत काल का जश्न मना रही है। तो दूसरी ओर, लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने और भागीदारी संस्थाओं को मजबूत करने की इसकी क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। क्या विलायती संसदीय प्रणाली सफल रही है या इस सिस्टम को सुधारों का इंजेक्शन देना अब समय की मांग है।
जानकर टिप्पणीकार इस बात पर सहमत हैं कि पंचायतों और नगर निगमों से लेकर राज्य विधानसभाओं और संसद के दोनों सदनों तक, हम प्रबुद्ध बहस करने वालों की तुलना में हंगामा करने वाले लोग अधिक देखते हैं। साल 1977 से पहले के जनता पार्टी प्रयोग की याद दिलाने वाली मजाकिया, शेर शायरी, कटाक्ष, खिंचाई, और व्यावहारिक बहसों का युग आज फीका पड़ चुका है।
लखनऊ के भूतपूर्व समाजवादी नेता राम किशोर याद करते हुए कहते हैं कि राज नारायण, मधु लिमये और पीलू मोदी जैसे लोगों ने संसद को एक जीवंत लोकतांत्रिक संस्था बनाया। एचवी कामथ, सुब्रमण्यम स्वामी, एसएन मिश्रा, शिब्बन लाल सक्सेना और कुंवर लाल गुप्ता की 'फायरिंग रेंज' ने हमेशा सरकारों को चौकन्ना रखा। मंत्रियों ने कभी भी बिना तैयारी के आने की हिम्मत नहीं की। साल 1960 और 1970 के दशक में सांसदों का प्रदर्शन अनुकरणीय था और मीडिया ने उनके उद्धरणों का भरपूर आनंद लिया। राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, नाथ पई, एनजी गोरे और अशोक मेहता जैसे नेताओं ने जीवंत बहसें सुनिश्चित कीं। साल 1977 की संसद में दिग्गजों की भरमार थी, जिनमें से प्रत्येक अपने आप में एक संस्था थी। हालांकि, आज की संसद में वैचारिक प्रतिबद्धता की कमी है, खासकर युवा सदस्यों में, जो शायद ही कभी पुस्तकालयों में जाते हैं या नोट्स तैयार करते हैं। इससे सभी स्तरों पर लोकतांत्रिक संस्थाओं में गुणात्मक गिरावट आई है।
राजनैतिक समीक्षक पारस नाथ चौधरी का मानना है कि युवा राजनीतिज्ञों को अगर सही तरीके से तैयार किया जाए और उनमें वैचारिक पेशेवरता का संचार किया जाए, तो वे मौजूदा परिदृश्य को बदल सकते हैं। साल 1960 और 1970 के दशक के विपरीत, आज की संसद में शौकिया लोगों का बोलबाला है, जो सूचनाप्रद बहसों की तुलना में सार्वजनिक भाषणों में बेहतर हैं।
चौधरी कहते हैं कि हमें ऐसे योग्य जन प्रतिनिधियों की ज़रूरत है, जो न केवल घोटालों को उजागर करें, बल्कि नीति-निर्माण में भी योगदान दें और साहित्यिक उद्धरणों और चुटीलेपन से कार्यवाही को जीवंत करें।
भारतीय संसद, विधायी और कार्यकारी कार्यों को मिलाकर, आम तौर पर जनता के मूड और आकांक्षाओं का जवाब देती है। हालांकि, हाल के रुझान चिंताजनक हैं। एक पूर्व कांग्रेस विधायक, नाम न बताने की शर्त पर, कहते हैं कि राजनेताओं का बौद्धिक स्तर आम तौर पर गिर गया है।
साल 1975-77 के आपातकाल के दौरान, संसद एक ‘चलती-फिरती लाश’ बन गई थी। मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और बाबू जगजीवन राम जैसे दिग्गजों के बीच आंतरिक संघर्षों के कारण जनता पार्टी का प्रयोग विफल हो गया।
निर्वाचित प्रतिनिधियों की गुणवत्ता ने संसदीय कामकाज को प्रभावित किया है। कई रिपोर्ट बताती हैं कि अनेक लोगों की आपराधिक पृष्ठभूमि है।
शुरुआत में सोचा गया था कि संसदीय कार्यवाही को कवर करने के लिए टीवी कैमरों को देखकर परफॉर्मेंस की क्वालिटी में वांछनीय फर्क आए। लेकिन, पिक्चर अभी बाकी है।
जब साल 2014 में मोदी सरकार ने सत्ता संभाली, तो बेहतर संवाद की उम्मीद थी। अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे नेताओं ने जनता को प्रभावित किया, लेकिन उनके निधन से एक खालीपन आया। विपक्ष, खासकर कांग्रेस, ने प्रतिभा की ज्यादा कमी दिखाई है। इसमें बहुत ज़्यादा शोरगुल और बार-बार बहिष्कार शामिल है।
प्रतिभा, वैचारिक समर्पण और बौद्धिक गहराई की कथित कमी के कारण भारतीय संसद की प्रभावशीलता जांच के दायरे में है। प्रमुख संकेतकों में कम होते बैठक के दिन, व्यवधान और निजी सदस्यों के विधेयकों में गिरावट शामिल है।
विशेषज्ञ इन मुद्दों को संसदीय प्रक्रिया में ठहराव, विविध आवाज़ों की कमी तथा जन प्रतिनिधि व जनता के बीच अलगाव के लिए जिम्मेदार मानते हैं। कार्यक्षमता और प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए पुनरुद्धार और सुधार की सख्त ज़रूरत है।
संसद में अनुभवी लोगों का कर्तव्य है कि वे नए लोगों को तैयार करें। पुराने लोगों का सुझाव है कि सांसदों को अपने निर्वाचन क्षेत्रों की तुलना में सदन और पुस्तकालय में अधिक समय बिताना चाहिए।
भारत के संसदीय लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए इन चुनौतियों का समाधान करने और प्रभावी शासन सुनिश्चित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
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