कभी सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज के समृद्ध मराठा साम्राज्य की राजधानी रहा रायगढ़ दुर्ग अपने भीतर शौर्य, नवाचार और वीरता की अनंत गाथाएं संजोए हुए है। इस किले का कंकड़-कंकड़ शिवाजी महाराज के अदम्य साहस और दूरदर्शी रणनीति को प्रतिध्वनित करता है, जिनके नेतृत्व ने इस दुर्ग को शक्ति का प्रतीक बना दिया। आज भी यह दुर्ग पीढ़ियों को इस साम्राज्य के इतिहास को आकार देने वाले असाधारण कार्यों की याद दिलाते हुए प्रेरित करना बदस्तूर जारी रखे हुए है।
प्राचीन पत्र ‘सभासद बखर’ दर्शाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने रायगढ़ दुर्ग का चयन मराठा साम्राज्य की राजधानी के रूप में किस प्रकार किया। इसमें उल्लेख किया गया है, “छत्रपति शिवाजी महाराज ने पहाड़ी या रायरी के सामर्थ्य का अवलोकन किया, जिसमें खड़ी ढलान है और यह इस क्षेत्र के सभी पर्वतों और पहाड़ियों में सबसे ऊंचाई पर है। इस चट्टान की बेजोड़ और अखंड प्रकृति उसका अपार सामर्थ्य है। दौलताबाद का किला भी अच्छा दुर्ग है, हालांकि, यह रायगढ़ जितना अच्छा नहीं है, क्योंकि यह ज्यादा ऊंचा और बेहतर है, इसलिए यह राजधानी और राजा के लिए सिंहासन के रूप में सबसे उपयुक्त है।”
काल और गांधारी नदियों की घाटियों से घिरा रायगढ़, आस-पास की पहाड़ियों से जुड़े बिना एक अलग-थलग पर्वतमाला के रूप में खड़ा है। इसकी अभेद्य प्रकृति, खड़ी चट्टानों और 1500-फुट ऊंची ढलानों जैसी प्राकृतिक भौगोलिक विशेषताओं की बदौलत है, जिसे नवोन्मेषी सैन्य रक्षा रणनीतियां बल प्रदान करती हैं। मराठा काल के ब्रिटिश इतिहासकार ग्रांट डफ ने रायगढ़ और जिब्राल्टर की चट्टान के बीच समानताएं बताई हैं। उन्होंने रायगढ़ को ‘पूर्व का जिब्राल्टर’ तक कह दिया है।
रायगढ़ दुर्ग यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के लिए ‘भारत के मराठा सैन्य परिदृश्य’ शीर्षक के तहत नामित 12 किलों में से एक है। इन किलों में से रायगढ़ मराठा वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है और पहाड़ी पर स्थित यह दुर्ग राजधानी का बेहतरीन प्रतीक है, जो दुर्ग के भीतर की संरचनाओं की सबसे विकसित टाइपोलॉजी के साथ पहाड़ी की भौगोलिक स्थिति के साथ बखूबी एकीकृत है।
मराठा सेना ने 1653 ई. में मोरे को हराकर रायगढ़, तब रायरी के नाम से विख्यात, पर अधिपत्य जमा लिया था। इस दुर्ग को राजधानी योग्य बनाने के लिए शिवाजी महाराज ने दुर्ग के पुनर्निर्माण का जिम्मा हिरोजी इंदुलकर को सौंपा। इसके बाद, 6 जून, 1674 ई. को रायगढ़ चौकी पर शिवाजी महाराज का भव्य राज्याभिषेक समारोह आयोजित किया गया, जिसके दौरान उन्होंने ‘छत्रपति’ की उपाधि प्राप्त की। यह दुर्ग छत्रपति शिवाजी महाराज की दूसरी राजधानी के रूप में रहा और इसने मराठा साम्राज्य के प्रशासन और विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
रायगढ़ दुर्ग महाराष्ट्र के गौरवशाली अतीत की मौन यादगार है और इसे ‘दुर्गराज’ यानी किलों का राजा कहा जाता है। इसके विभिन्न स्थलों ने इसे 'शिव तीर्थ' की श्रद्धा प्रदान की है। यह दुर्ग शिवभक्तों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल का दर्जा प्राप्त कर चुका है, क्योंकि हजारों लोग केवल इसके धरोहर स्थल होने और रक्षा की दृष्टि से स्थापत्य का उत्तम नमूना होने की वजह से ही इस दुर्ग में नहीं आते, बल्कि वीरता, शौर्य, प्रशासनिक कौशल, परोपकार और देशभक्ति के लिए विख्यात अपने आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज का स्थान होने के कारण इस दुर्ग की ओर खिंचे चले आते हैं।
शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की वर्षगांठ ईसाई और हिंदू कैलेंडर के आधार पर बहुत उत्साह के साथ मनाई जाती है, जिसमें महाराष्ट्र के कोने-कोने से आने वाले लोगों की भारी भीड़ जुटती है। इसी प्रकार, शिवाजी महाराज की पुण्यतिथि भी बड़ी श्रद्धा के साथ मनाई जाती है।
शिवाजी महाराज ने 1674 ई. में इस स्थान पर अपनी राजधानी स्थापित की थी। उन्होंने यह दुर्ग चंद्रराव मोरे से 1656 ई. में छीना था। व्यापक आकलन के बाद और इसकी रणनीतिक स्थिति और दुर्गमता को देखते हुए इसे हिंदवी स्वराज की राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त माना गया। इस पहाड़ी की चोटी पर केवल पहाड़ी के एक तरफ से ही पहुंचा जा सकता है। शिवाजी महाराज ने 1680 ई. में अपनी मृत्यु होने तक छह साल तक रायगढ़ दुर्ग से हिंदवी स्वराज पर शासन किया था। रायगढ़ दुर्ग में छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि है।
रायगढ़ दुर्ग शानदार ढंग से डिजाइन किए गए अपने द्वारों, दुर्ग की दीवारों और भव्य स्मारकों के लिए उल्लेखनीय है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि शिवाजी महाराज की समाधि, नक्कारखाना, शिरकाई देवी मंदिर, भगवान शिव को समर्पित जगदीश्वर मंदिर के अतिरिक्त दुर्ग के भीतर स्थित अधिकांश संरचनाएं जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं, जिनमें राजसदर, शाही परिसर, रनिवास, बाजारपेठ, मनोर, वडेश्वर मंदिर, खूबलढ़ा बुरुज, मशीद मोर्चा व नाणे दरवाजा शामिल हैं।
शाही परिसर जिसमें रनिवास, राजसदर, नक्कारखाना, मेणा दरवाजा और पालकी दरवाजा शामिल हैं, पूरी तरह किलाबंद है और केवल तीन प्रवेश द्वारों के माध्यम से इस तक पहुंचा जा सकता है। इस किलाबंद परिसर को आम तौर पर ‘बल्ले किल्ला’ के रूप में जाना जाता है। बल्ले किल्ला से सटी तीन खूबसूरत मीनारे हैं। इनमें से एक उत्तर में स्थित है, जबकि अन्य दो मीनारें किलेबंदी की दीवार के पूर्व में स्थित हैं। ये तीन मंजिला मीनारें बेहद अलंकृत रूप से डिजाइन की गई हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मूल रूप से इनका उपयोग आनंद मंडप के रूप में किया जाता था। शौचालय में जल निकासी की उचित व्यवस्था काबिले गौर है। एक भूमिगत तहखाना ‘खलबत खाना’ पूर्व में स्थित है, जिसका उपयोग संभवतः गुप्त बैठकों, व्यक्तिगत पूजा-अर्चना और खजाने के रूप में भी किया जाता था।
‘राजसदर’ स्थान पर शिवाजी महाराज रोजमर्रा के मामलों के संबंध में इंसाफ करने और गणमान्य व्यक्तियों और दूतों का स्वागत करने के लिए अपना दरबार लगाते थे। यह एक आयताकार संरचना है, जिसका मुख पूर्व की ओर है। यहां तक पूर्व की ओर से एक शानदार प्रवेश द्वार के माध्यम से पहुंचा जा सकता है, जिसे सामान्यत: नक्कारखाना के रूप में जाना जाता है। यह प्रवेश द्वार शाही सिंहासन के सामने एक शानदार तीन मंजिला संरचना है। इसकी सबसे ऊपरी मंजिल ईंटों से बनी है, वहीं इसकी निचली मंजिलें पत्थर के ब्लॉकों से बनी हैं। ऐसा माना जाता है कि नक्कारखाना में शाही बैंड बजाया जाता था। आश्चर्यजनक ध्वनिक गुणों के साथ यह वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। नक्कारखाना और शाही सिंहासन के बीच की दूरी लगभग 65 मीटर है, फिर भी दोनों छोर से हल्की फुसफुसाहट भी स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है। राजसदर शिवाजी महाराज के सुख, दुख, क्रोध, जीत, प्रशासनिक कौशल और अत्यधिक उदारता का मूक गवाह है।
मुख्य मंच पर एक अष्टकोणीय मेघदंबरी है, जिस पर छत्रपति शिवाजी महाराज की बैठी हुई प्रतिमा सिंहासन के मूल स्थान पर स्थापित है। यह दर्ज है कि हीरे और सोने से जड़ा शाही सिंहासन लगभग 1000 किलोग्राम वजन वाले सोने के आठ स्तंभों पर टिका हुआ था। इस पर शिवाजी महाराज का शाही प्रतीक भी अंकित था। सिंहासन के ऊपर छत्र को कीमती पत्थरों और मोतियों की मालाओं से सजाया गया था।
‘होलीचा माल’ नक्कारखाना के बाहर स्थित है। यह एक विस्तृत खुला मैदान है जिसका उपयोग संभवतः वार्षिक होली उत्सव के लिए किया जाता था। होलीचा माल की पश्चिमी परिधि पर, दुर्ग की अधिष्ठातृ देवी शिरकाई भवानी को समर्पित एक छोटा सा मंदिर है। ऐसा माना जाता है कि अधिष्ठातृ देवी मूल रूप से होलीचा माल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक ऊंचे पत्थर के चबूतरे पर आसीन थीं, जिन्हें बाद में उनके वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित कर दिया गया। होलीचा माल के उत्तर में, मजबूती से बनाई गई संरचनात्मक इकाइयों की विशाल और समानांतर पंक्ति है, जिसे आमतौर पर बाजार के रूप में जाना जाता है। इस परिसर की प्रत्येक इकाई में सामने एक बरामदा और पीछे की ओर दो कमरे हैं। चबूतरा और दीवारें सेमी-ड्रेस्ड बेसाल्ट पत्थर के ब्लॉक और अनगढ़े पत्थरों से निर्मित हैं, जिसमें चूने का उपयोग गारे के रूप में किया गया है।
जगदीश्वर मंदिर मंदिर का मुख पूर्व की ओर है। इसके सामने मंडप और पिछले हिस्से में गर्भगृह है। मंदिर में कम ऊंचाई वाले प्रवेश द्वार से दाखिल हो सकते हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थित है जिसकी आज भी पूजा-अर्चना की जाती है। मंदिर की आंतरिक दीवारों पर कोई नक्काशी नहीं है। हालांकि, प्रस्तावित संरचना सुरुचिपूर्ण नक्काशीदार कोष्ठकों से मंडित है।
छत्रपति शिवाजी महाराज की समाधि जगदीश्वर मंदिर के पूर्वी प्रवेश द्वार के ठीक सामने स्थित है। मूल रूप से, यह समाधि केवल कम ऊंचाई वाला एक अष्टकोणीय मंच था। लेकिन, बीसवीं सदी की शुरुआत में न केवल इस मंच की ऊंचाई बढ़ाई गई, बल्कि उसी स्थान पर एक छत्र भी बनाया गया।
पहाड़ी की तलहटी में, रायगढ़वाड़ी गांव के पास चित्त दरवाज़ा स्थित है। इसे स्थानीय रूप से जीत दरवाज़ा के नाम से भी जाना जाता है। लगभग 70-80 मीटर पैदल चलने के बाद खूबलढ़ा बुरुज स्थित है। यह खूबलढ़ा बुरुज रणनीतिक रूप से स्थित है जहां से दुर्ग के करीब आने वाले किसी भी व्यक्ति को सुरक्षा कर्मियों द्वारा आसानी से देखा जा सकता था।
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