उज्जैन स्थित भर्तृहरि की गुफा के बारे में माना जाता है कि यहां राजा भर्तृहरि ने कठोर तपस्या की थी। शिप्रा नदी के निकट मौजूद इस गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है। गुफा की ऊंचाई काफी कम है। यहां प्रकाश भी काफी कम है। अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं। इसके बावजूद, गुफा में अंधेरा रहता है। यहां की छत बड़े-बड़े पत्थरों के सहारे टिकी हुई है। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धूनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है।
राजा भर्तृहरि का अन्तिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि राजस्थान स्थितअलवर के जंगलों में है। उसके सातवें दरवाजे पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि की ज्योति माना जाता है। भर्तृहरि महान शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को पुनः स्थापित कर अमर हो गए।
भर्तृहरि की कहानी उज्जयिनी के राजा महाराज गंधर्वसेन से शुरू होती है। उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र भर्तृहरिथे। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि वह विक्रमादित्य से बड़े थे। राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे।
भर्तृहरि के संत बनने के पीछे कई तरह की कहानियां कही जाती हैं। प्रचलित कहानियों में से एक के अनुसार अपनी सबसे प्रिय रानी की बेवफाई से खिन्न होकर उन्होंने अपना राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को दे दिया और खुद गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर संन्यास ले लिया।
इस कहानी के अनुसार भर्तृहरि की दो पत्नियां थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह पिंगला से किया। पिंगला बहुत सुंदर थीं और इसी वजह से भर्तृहरि तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित हो गए। पत्नी मोह में वह अपने कर्तव्यों को भी भूल गए। उसी दौरान उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ।
गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा को एक फल दिया और कहा कि यह फल खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे और सदैव सुंदरता बनी रहेगी।
राजा ने यह चमत्कारी फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि, राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी।
यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। इधर, रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वेश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उस वेश्या को दे दिया ताकि वेश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।
वेश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल अपने पास वापस देखकर हतप्रभ रह गए।
राजा ने वेश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वेश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। राजा ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने सच्चाई बता दी। जब भर्तृहरि को सच मालूम हुआ तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है।
पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वह अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। तब, इसी गुफा में भर्तृहरि ने 12वर्ष तक तपस्या की।
राजा भर्तृहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भर्तृहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भर्तृहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भर्तृहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। इसी प्रकार कई वर्ष तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गया।
यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भर्तृहरि की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।
दूसरी कहानी बिल्कुल इसके विपरीत है। इस कहानी के मुताबिक अपनी मृत्यु की झूठी खबर सुनकर रानी पिंगला के सती हो जाने के बाद वह गुरु गोरखनाथ की शरण में जा पहुंचे। कहानी के अनुसार रानी पिंगला पति से बेहद प्रेम करती थीं। कहानी में राजा भर्तृहरि एक बार शिकार खेलने गए थे। उन्होंने वहां देखा कि एक पत्नी ने अपने मृत पति की चिता में कूदकर अपनी जान दे दी। राजा भर्तृहरि उस पत्नी का प्यार देखकर बहुत ही आश्चर्य चकित हो गए। वह सोचने लगे कि क्या मेरी पत्नी भी मुझसे इतना प्यार करती है।
अपने महल में वापस आकर राजा भर्तृहरिने जब यह घटना अपनी पत्नी पिंगला से कही तो रानी ने कहा कि वह तो यह समाचार सुनते ही मर जाएगी। चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी। राजा भर्तृहरि ने सोचा कि वह रानी की परीक्षा लेकर देखेंगे कि यह बात सच है कि नहीं। एक बार फिर से भर्तृहरि शिकार खेलने गए और वहां से समाचार भेजा कि उनकी मृत्यु हो गई। यह खबर सुनते ही रानी पिंगला की मृत्यु हो गई। राजा भर्तृहरि बिल्कुल टूट जाता है, अपने आप को दोषी ठहराते हैं। लेकिन, गोरखनाथ की कृपा से रानी पिंगला जीवित हो जाती है और इस घटना के बाद राजा भर्तृहरि गोरखनाथ के शिष्य बनकर चले जाते हैं।
एक अन्य कहानी से उनके संत जीवन के बारे में भी पता चलता है। इसके अनुसार, उज्जैन के राजा भर्तृहरि के पास 365 रसोइए थे। ये राजा और उसके परिवार व अतिथियों के लिए भोजन बनाते थे। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मौका मिलता था। लेकिन, इस दौरान भर्तृहरि जब गुरु गोरखनाथ के चरणों में चले गए तो भिक्षा मांगकर खाने लगे।
एक बार गुरु गोरखनाथ ने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है। शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो रसोइये रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?’ गुरु गोरखनाथ ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘भर्तृहरि! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।’
जब राजा भर्तृहरि नंगे पैर गए और जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे तो गोरखनाथ ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गए। भर्तृहरि ने फिर से बोझ उठाया और चलने लगे। उनके चेहरे पर न कोई शिकन और न कोई गुस्सा आया। गुरु ने चेलों से कहा, ‘देखा! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।’
शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।’ थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन और सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भर्तृहरि युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।
गोरखनाथ ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो गया होगा कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है। शिष्यों ने कहा, गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथ ने कहा, अच्छा भर्तृहरि हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।
भर्तृहरि अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में जा पहुंचे। धधकते रेत पर यात्रा करते छह दिन बीत गए। सातवें दिन गुरु गोरखनाथ अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे।
गोरखनाथ बोले, ‘देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।’ उन्होंने अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो।
‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’ गोरखनाथ दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या अभी भी थी।
शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।’ गोरखनाथ रूप बदलकर भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।’ भर्तृहरि बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।’ गोरखनाथ ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’ थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि उनके कपड़े फट गए। पैरों में कांटे चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने ‘आह’ तक नहीं की।
अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गए। तभी गोरखनाथ ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरुजी की आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना था कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया। गुरुजी बोले, ”शाबाश भर्तृहरि, वर मांग लो। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वह मांग लो।
भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता ही सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।’ गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भर्तृहरि! तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ तो मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सुई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।’
गोरखनाथ और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है! मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए!
देश के अलग-अलग हिस्सों में उनके बारे में कई और भी कथाएं प्रचलित हैं। एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए थे। वहां काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरनियों का पति और पालनकर्ता है, इसलिए, आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया। इससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा।
प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मरणासन्न हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का शव घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई।
भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूं कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली और सन्यासी हो गए।
भर्तृहरि के बारे में प्रचलित ढेर सारी कहानियों के साथ-साथ एक बात हर जगह मानी जाती है कि चमत्कारी फल को खाने के कारण वह अमर हैं और खुद से जुड़े स्थानों पर अलग-अलग रूप में अक्सर आया करते हैं। राजा भर्तृहरि को नाथ संप्रदाय के साधु और भक्त अपना देवता मानते हैं। कहा जाता है कि राजस्थान के अलवर स्थित भर्तृहरि धाम में सदियों से अखंड ज्योति और धूनी जल रही है।
भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परा के अग्रणी कवि भी रहे हैं। उन्होंने वैराग्य पर ‘वैराग्य शतक’ की रचना की। इसके साथ ही भर्तृहरि ने ‘श्रृंगार शतक’ और ‘नीति शतक’ की भी रचना की। यह तीनों ही कृतियां आज भी उपलब्ध हैं। इन तीन कृतियों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरूप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियां जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
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