"आगरा से नोएडा डेढ़ घंटा, और नोएडा परी चौक से इंदिरा गांधी हवाई अड्डा दो घंटा। 1972 में भी आगरा से दिल्ली पहुंचने में चार-पांच घंटे लगते थे। आज हालात और बदतर हैं, प्रदूषण से आंखें जलती हैं, गले में खराश है, नाक बह रही है।"
खन्ना साहब यह दुखभरी दास्तान सुनाते हुए टैक्सी से उतरे, रास्ते में कुत्ते को लात मारी, गार्ड पर झल्लाए, सेक्रेटरी को फाइल भूलने पर डांटा। मीटिंग के लिए वह पहले ही एक घंटा लेट हो चुके थे, क्लाइंट ऊब चुके थे।
Read in English: India stuck in traffic; Cities halt, Horns holler, and time takes a nap
भारत के ज्यादातर बड़े शहरों की यही हालत है। मंज़िल पर कब पहुंचेगा कोई नहीं जानता। सब कुछ अब भगवान भरोसे है। नीति आयोग और शहरी निकायों के तमाम दावे कागजों में सिमटे हैं।
हमारे शहर गति नहीं, घुटन का प्रतीक बन चुके हैं। ट्रैफिक जाम अब केवल असुविधा नहीं, बल्कि एक ऐसी राष्ट्रीय आपदा है जो हर दिन लोगों की ऊर्जा, उत्पादकता और मानसिक शांति को निगल रही है।
साल 2025 में कोलकाता दुनिया का सबसे अधिक जाम वाला शहर बन गया, जहां एक व्यक्ति औसतन साल में 110 घंटे ट्रैफिक में फंसा रहता है, यानी चार दिन सड़क पर! बेंगलुरु दूसरे नंबर पर है, जहां पीक ऑवर में 10 किमी तय करने में 34 मिनट लगते हैं।
मुंबई, दिल्ली और जयपुर, हर शहर वही कहानी दोहरा रहा है। आगरा में मेट्रो निर्माण को यातायात अव्यवस्था का कारण बताया जा रहा है। मगर, कारण केवल इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी नहीं, बल्कि समाज की खराब आदतें भी हैं। ट्रैफिक नियमों का पालन करना मानो अपमान की बात हो गई है।
दिल्ली-एनसीआर में औसत गति पीक समय में 37 किमी/घंटा से घटकर 24.5 किमी/घंटा रह गई है। जयपुर के चालक सालाना 83 घंटे ट्रैफिक में गंवाते हैं। मुंबई का ट्रैफिक इंडेक्स 257 से ऊपर पहुंच गया है, हर सड़क थक चुकी है।
एक 30 मिनट का जाम दिल्ली में लगभग एक लाख मानव घंटे नष्ट करता है। देशभर में यह नुकसान सकल घरेलू उत्पाद का करीब तीन फीसदी, यानी लगभग ₹65 हजार करोड़ सालाना अनुमानित है। यह वही समय है जो उद्योग, शिक्षा या नवाचार में लग सकता था, पर अब कारों और हॉर्न की भेंट चढ़ता है। बेंगलुरु में 2018 में जाम से करीब सात लाख घंटे बर्बाद हुए थे; अब यह आंकड़ा कई गुना बढ़ चुका है। शहरों की गति अब विकास की नहीं बल्कि विलंब की कहानी कह रही है।
ट्रैफिक सिर्फ वक्त नहीं, हवा भी खा रहा है। दिल्ली का पीएम2.5 स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानक सीमा से दस गुना अधिक बना हुआ है, जो इसे दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानियों में शीर्ष पर बनाता है।
दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में 20 भारतीय हैं। मुंबई का एक्यूआई अक्सर 300 से ऊपर चला जाता है, जबकि चेन्नई जैसी तटीय हवा भी अब धुएं से भरी है। दिल्ली की सड़कों की धूल और वाहनों का धुआं मिलकर शहर को गैस चैम्बर में बदल देता है। हर सर्दी, उत्तर भारत धुएं के कफन में लिपट जाता है। यह सिर्फ प्रदूषण नहीं, प्रगति की कीमत पर आत्मघात है।
भारत की सड़कें अब जानलेवा हो चुकी हैं। सड़क परिवहन मंत्रालय के अनुसार, 2024 में 1.8 लाख लोगों की जान सड़क हादसों में गई, यानी रोज़ाना 500 मौतें। दिल्ली में पिछले साल 1,457 और बेंगलुरु में 915 लोगों की मौत दर्ज हुईं।
सिग्नल तोड़ना, ओवरस्पीडिंग और लेन-बदलने की होड़ ने सड़कों को श्मशान में बदल दिया है। ये केवल आंकड़े नहीं, बिखरे परिवारों की चीखें हैं। ट्रैफिक शरीर ही नहीं, दिमाग भी थका देता है। सर्वे बताते हैं कि 62 प्रतिशत चालक कभी न कभी गुस्से में फूट पड़ते हैं और हर पांच में से एक रोज़ाना तनाव झेलता है।
जयपुर और लखनऊ जैसे शहरों में लंबे जाम से माइग्रेन, चिंता और नींद की कमी जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं। हॉर्न, धुआं और निरंतर रुकावटें अब ‘साइलेंट स्ट्रेस’ बन चुकी हैं, जो घर और कार्यस्थल दोनों पर असर डालती हैं। यह संकट अचानक नहीं आया है। अनियोजित शहरीकरण, गलत यातायात योजना और निजी वाहनों की बाढ़ ने सड़कों को जाम कर दिया है।
अब देश में 86 प्रतिशत से अधिक वाहन निजी हैं। सार्वजनिक परिवहन पिछड़ चुका है; साइकिल और पैदल चलने वालों के लिए स्थान लगभग खत्म हो गया है। हमारे शहर इंसानों के लिए नहीं बल्कि मशीनों के लिए बने हैं, और यही उनकी विफलता है। आशा अब भी है, अगर हम तुरंत कदम उठाएं। भीड़ शुल्क, इलेक्ट्रिक बसें, एआई-नियंत्रित सिग्नल और सुरक्षित साइकिल लेन, ये सब आने वाले दशक के लिए अनिवार्य हैं।
अब ज़रूरत है साहसिक नीति निर्णयों की, ताकि शहरों की रफ्तार फिर ज़िंदगी की धड़कन में बदल सके। भारत के शहर धीरे-धीरे थम रहे हैं। हर दिन लाखों लोग सड़कों पर अपना समय, हवा और धैर्य खो रहे हैं। यह सिर्फ ट्रैफिक नहीं, बल्कि जीवन की रफ्तार का अपहरण है।






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