थकावट और ठहराव की शिकार हो चुकी है कांग्रेस...!


इसमें कोई संदेह नहीं है कि 28 दिसंबर, 1885 को स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई। खासकर महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू और 20वीं सदी की शुरुआत में डॉ. राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेताओं के प्रेरक नेतृत्व में भारत ने आजादी हासिल की। हालांकि, हाल के वर्षों में पार्टी की प्रासंगिकता काफी कम हो गई है। जैसे-जैसे भारत नई सहस्राब्दी में प्रवेश कर रहा है, पार्टी के भीतर संस्थागत ठहराव के संकेत स्पष्ट हो रहे हैं।

कांग्रेस पुरानी विचारधाराओं और रणनीतियों में उलझी हुई है, जो हालिया  मुद्दों के साथ प्रतिध्वनित होने वाले आकर्षक और बिकाऊ आख्यान को स्पष्ट करने के लिए संघर्ष कर रही है। स्पष्ट रणनीति की कमी ने टिप्पणीकारों को कांग्रेस को एक बीते युग के अवशेष के रूप में देखने के लिए मजबूर कर दिया है।

Read in English: Congress has become a victim of fatigue and stagnation...!

क्षेत्रीय दलों और नेताओं के उदय ने कांग्रेस के प्रभाव को कम कर दिया है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में सपा, आप, टीडीपी, टीएमसी और डीएमके जैसी स्थानीय पार्टियों ने मतदाताओं का ध्यान अपनी ओर फेविकोल से जोड़ रखा है।

कांग्रेस के भीतर नेतृत्व संकट ने भी इसके पतन की राह को आसान बना दिया है। समर्थन जुटाने और आत्मविश्वास जगाने वाले मजबूत व करिश्माई नेताओं के अभाव ने पार्टी को दिशाहीन बना दिया है। भाई-भतीजावाद की प्रवृत्ति ने गांधी परिवार से बाहर के संभावित नए युवा नेताओं को अलग-थलग कर दिया है। इनमें से कई सार्थक भागीदारी और प्रतिनिधित्व के लिए तरसते दिखते हैं। यूथ कांग्रेस का तो अब नाम भी सुनाई नहीं देता है। परिणामस्वरूप, विचारों में ठहराव और नए राजनीतिक प्रतिमानों को अपनाने में अनिच्छा दिखती है। इससे पार्टी के विकास और अनुकूलनशीलता में बाधा आ रही है।

साल 1991 के आर्थिक उदारीकरण और कई रणनीतिक भूलों के बाद, हाल के दशकों में, कांग्रेस ने अपने राजनीतिक भाग्य को पुनर्जीवित करने के लिए संघर्ष किया है। पार्टी का अपनी पारंपरिक वामपंथी विचारधारा से पूंजीवादी सुधारों की ओर जाना इसके मूल सिद्धांतों से एक महत्वपूर्ण विलगाव था। इस बदलाव ने एक धारणा बनाई कि कांग्रेस सामाजिक समानता और कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से समझौता कर रही है। इससे इसके पारंपरिक समर्थन आधार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अलग-थलग पड़ गया।

इसके अलावा, कांग्रेस द्वारा अपने अल्पसंख्यक वोट बैंक को मजबूत करने के प्रयास अक्सर बहुसंख्यक समुदाय को अलग-थलग करने की कीमत पर सामने आए हैं। इस तुष्टिकरण रणनीति ने मतदाताओं को और अधिक ध्रुवीकृत किया है। भाजपा ने इस भावना का लाभ उठाया और खुद को बहुसंख्यकों के चैंपियन के रूप में प्रभावी ढंग से स्थापित किया। जबकि, कांग्रेस को तुष्टिकरण की पार्टी के रूप में चित्रित किया। बीजेपी के इस कदम से एक ऐसे कथानक को बढ़ावा मिला जो देश के विभिन्न हिस्सों में उसके लिए फायदेमंद रहा। अयोध्या कांड के पश्चात इस पार्टी की विवशता और दुविधा अधिक स्पष्ट हुई।

कांग्रेस की दुर्दशा में योगदान देने वाला एक कारक नेहरू-गांधी परिवार के बाहर नए नेतृत्व को पेश करने में इसकी विफलता रही है। इस वंशवादी राजनीति ने ऐसे नवोन्मेषी नेताओं के उभरने को रोक दिया है जो पार्टी को पुनर्जीवित और विविध मतदाताओं के साथ प्रतिध्वनित हो सकते हैं। समकालीन भारतीय समाज की आकांक्षाओं और चुनौतियों से जुड़ने वाले जीवंत नेतृत्व की अनुपस्थिति ने एक राजनीतिक शून्यता पैदा कर दी है। इस परिस्थिति का कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वियों द्वारा प्रभावी रूप से फायदा उठाया गया है।

इसके अतिरिक्त, कांग्रेस को पार्टी नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के कई घोटालों को लेकर भाजपा द्वारा किए गए लगातार हमलों का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। इन आरोपों ने कांग्रेस की छवि को धूमिल कर दिया है, और भाजपा ने खुद को एक स्वच्छ, अधिक पारदर्शी विकल्प के रूप में चित्रित करने के लिए इसका भरपूर लाभ उठाया है। कांग्रेस का सबसे ज्यादा नुकसान अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने किया है। इसने साल 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद जन लोकपाल बिल और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मुहिम के जरिए कांग्रेस विरोधी माहौल तैयार करके भाजपा के लिए उपजाऊ भूमि तैयार करने में खासा योगदान दिया।

वैचारिक बदलाव, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, वंशवादी नेतृत्व संघर्ष और भ्रष्टाचार के मुद्दों जैसे कारकों के इस संयोजन ने कांग्रेस के निरंतर पतन को और तेज कर दिया है। आज, कांग्रेस खुद को एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा पाती है। हालांकि, फिलहाल यह राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र व्यवहार्य विकल्प बनी हुई है। इसका व्यापक जमीनी तंत्र अभी भी बरकरार है। लेकिन, पार्टी को अपनी प्रासंगिकता हासिल करने और भारतीय राजनीति में अपनी स्थिति को बहाल करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।



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