हमारे गांव में जब पहली बार वीसीआर आया, तब हमें सिनेमा के ‘स’ का भी पता नहीं था। वीसीआर के ‘मालिक’ एक बड़े हॉल में टिकटें बेचकर, एक रंगीन टीवी पर फिल्में दिखाते थे। वह हमारे पिता के मित्र थे तो एक दिन उन्होंने हम सभी बच्चों को फिल्म दिखाने के लिए बुलवाया। हम सब, पूरा परिवार, फिल्म देखने गए। फिल्म थी, ‘जय संतोषी मां’ और मेरी उम्र तब तीन या चार साल रही होगी।
हम सब बच्चे बाहर बैठे, पहले से चल रहे शो के खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। उस समय हम बस यह सोच रहे थे कि कुछ ‘रामलीला’ जैसा आयोजन होता होगा, जिसमें गांव के ही कुछ लोग ‘मां संतोषी’ से जुड़े पात्रों का अभिनय करेंगे।
Read in English: Not just a ‘Star', Dharmendra was a ‘Legacy’...
शो खत्म हुआ तो पहले वाले दर्शक कमरे से बाहर निकले और हम नए वाले अंदर घुसे। लेकिन, जब सामने का नजारा देखा कि वहां तो सिर्फ एक टीवी रखा था। रामलीला जैसा कोई तामझाम वहां नहीं था। मतलब यह कि हम कुर्सी पर बैठने से पहले ही ‘सरप्राइज्ड’ हो चुके थे। खैर, सामने रखे टीवी की बगल में लगे वीसीआर से एक व्यक्ति उलझा हुआ था। थोड़ी देर की अफरातफरी के बाद पता चला कि वीसीआर में कोई तकनीकी खराबी है, इसलिए चल नहीं पा रहा है। थोड़ी सी जद्दोजहद के बाद एक समझदार सा व्यक्ति अंदर आया और जोर से बोला, “दूसरी वाली कैसेट ला”। यह “कैसेट” शब्द हमने पहली बार सुना था। एक और कैसेट लाया गया। इधर, हम बच्चे कुछ मम्मी की गोद में और कुछ पापा की गोद में लुढ़कने लगे।
अचानक स्क्रीन पर ‘कुछ’ चला और हम सबने बिल्कुल सीधे होकर सामने वाली स्क्रीन पर नजरें टिका दीं। स्क्रीन पर एक आदमी दूसरे आदमी के गले में बड़ा सा डंडा डाले हुए कह रहा था, “नहीं ठाकुर, नहीं, मैं इसे जिंदा नहीं छोडूंगा”। मैं एक दम से डर गया और पापा से चिपककर कहने लगा कि “पापा, इनकी लड़ाई बंद कराओ, मुझे डर लग रहा है।“ पापा मुझे आश्चर्य से देख रहे थे और मुझसे बड़े घर के दूसरे बच्चे मुझ पर हंस रहे थे। पापा ने कहा कि ये ‘शोले’ फिल्म है, धर्मेंद्र की! तेरा नाम भी तो ‘धर्मेंद्र’ है, डर क्यों रहा है। लेकिन, मैं नहीं माना और जब तक स्क्रीन से वह दृश्य गायब नहीं हो गया, तब तक डरकर रोता रहा।
खैर, वह दृश्य तो एक दूसरी कैसेट लगाकर वीसीआर की टेस्टिंग की जा रही थी। फिर भी पापाजी ने आवाज देकर वही ‘जय संतोषी मां’ फिल्म लगाने के लिए कह दिया, जिसे देखने का वास्तव में न्योता मिला था।
आप कह सकते हैं कि किसी भी स्क्रीन पर यदि मैंने कोई पहला अभिनेता देखा तो वह ‘धर्मेंद्र’ ही थे। तीन-चार साल बाद जब थोड़ी समझ बढ़ी तो फिल्मों की ओर भी स्वत: रुझान बढ़ने लगा। घर में भी टीवी आ गया। गाहे-बगाहे धर्मेंद्र की दूसरी फिल्में दिखने लगीं। अब घर में आने वाले अखबार के फिल्मी पन्ने पर भी नजरें जमने लगीं। खासकर, सिनेमाघरों में आने वाली नई फिल्मों के विज्ञापन पेजों पर। धर्मेंद्र के चेहरे से जान-पहचान होने लगी थी। दस साल की उम्र होते-होते यह पता लगने लगा कि धर्मेंद्र बहुत बड़े और अच्छे एक्टर हैं।

फिर वह दौर आया जब घरों में टीवी खरीदे जाने लगे और नई फिल्में देखने के लिए वीसीआर किराये पर घरों में आने लगे। शादी, समारोहों और जन्मदिनों वाली रात को घरों में वीसीआर आते और पूरी रात फिल्में देखी जातीं। मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म ‘डिस्को डांसर’ आ चुकी थी और हम उनके पूरे ‘फैन’ भी बन चुके थे। तो, ऐसे ही एक घरेलू सगाई के समारोह में वीसीआर लाया गया। जिद के अनुसार, हमने ‘फतवा’ जारी कर दिया कि मिथुन की फिल्म लगेगी, लेकिन हम से कुछ बड़े वाले बच्चे जिद करने लगे कि धर्मेंद्र की फिल्म लगेगी। घोर ‘संग्राम’ के बाद यह सहमति बनी कि कोई ऐसी फिल्म लगेगी जिसमें धर्मेंद्र और मिथुन दोनों हों। और, फिल्म लगी ‘गुलामी’।

जिन लोगों ने ‘गुलामी’ देखी होगी, उन्हें पता होगा कि उस फिल्म के मुख्य नायक धर्मेंद्र हैं और मिथुन चक्रवर्ती का प्रवेश कहानी में 54 मिनट बाद होता है और एक साथ, पहला शॉट 56वें मिनट पर है। लेकिन, फिल्म के पहले 50 मिनटों में धर्मेंद्र का चरित्र हम पर पूरी तरह हावी हो चुका था। फिर, जब दोनों कमाल के अभिनेता एक साथ स्क्रीन पर दिखे तो वहां जो माहौल बना, उसे शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है। सगाई के जश्न के बजाय वहां अब ‘गुलामी’ का जश्न मन रहा था। आज के दिन यह फिल्म एक ‘कल्ट’ बन चुकी है, और उस दिन हम धर्मेंद्र के ‘जबरा फैन’ बन चुके थे।
बाद में, एक के बाद एक, धर्मेंद्र की कई फिल्में देखीं। फिर सारी फिल्में देखीं। घटिया वाली भी और बढ़िया वाली भी। जब घर में ब्रॉडबैंड लग गया, ओटीटी आ गया और बड़ा वाला टीवी भी, तो दोबारा सारी फिल्में देख डालीं। आज के दिन मैं कह सकता हूं कि मैंने धर्मेंद्र की सारी फिल्में ‘पूरी’ देखी हैं। वे फिल्में भी देखी हैं, जिनके हीरो कतई पसंद नहीं थे, लेकिन उसमें धर्मेंद्र वैसे ही, कैसे भी रोल में बस ‘मौजूद’ थे।
जब बीमार हुए तो मैं घर में ‘गुरुजी’ से कह रहा था कि बहुत ‘पुख्ता’ हैं, अस्पताल से कई बार सकुशल लौटेंगे, ठीक ‘दिलीप कुमार’ की तरह। टीवी पर जब उनके मरने की गलत खबर प्रसारित हुई तो आंखें गीली सी हुईं, लेकिन जब पता चला कि वह ‘सकुशल’ हैं, और उन्हें घर ले आया गया है तो खुद के आकलन पर एक बार फिर ‘यकीन’ बना।
आज सुबह, जब उनकी मृत्यु के शाश्वत सत्य से सामना हुआ तो उनकी छवि के साथ गुजारा गया हर लम्हा याद हो आया। आप कह सकते हैं कि धर्मेंद्र महज एक ‘सितारा’ नहीं, बल्कि एक ‘धरोहर’ थे..., एक ‘नायक’ नहीं बल्कि एक ‘कथा’ थे..., एक ‘शख़्सियत’ नहीं बल्कि एक ‘युग’ थे..., एक ‘सुपरस्टार’ नहीं बल्कि एक ‘संवेदना’ थे..., महज ‘हीरो’ नहीं बल्कि एक ‘आस्था’ थे..., एक ‘कलाकार’ नहीं बल्कि एक ‘अनुभव’ थे..., वह सिर्फ एक ‘व्यक्ति’ नहीं बल्कि एक ‘विरासत’ थे...






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