“हमसे ग़लती हो गई है अनजाने में, जुर्माना ले लो...”


तीन दशक पहले, 1993 में, जस्टिस कुलदीप सिंह की बेंच ने ताज ट्रेपेज़ियम ज़ोन में प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों पर पूरी पाबंदी लगा दी गई थी। ईरान फाउंड्री, ग्लास फैक्टरी सब बंद हो गए, लोकल अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। हज़ारों मज़दूर बेरोज़गार हुए, उद्योग ठप पड़ गए, लेकिन संदेश साफ़ था कि पर्यावरण की हिफ़ाज़त, मुनाफ़े से ज़्यादा अहम है।

लेकिन, वक़्त के साथ यह नैतिक साफ़गोई धुंधली पड़ती गई। कोर्ट के फैसले उलझे हुए, डगमगाते और कई बार एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नज़र आने लगे हैं। इस साल आया वनशक्ति वाला फैसला उम्मीद की एक किरण था, जिसमें कोर्ट ने कहा कि पिछली तारीख़ से मंज़ूरी देना संविधान और पर्यावरण क़ानून दोनों के खिलाफ़ है। लेकिन, अब क्रेडाई बनाम वनशक्ति (रिव्यू 2025) में सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद संशोधन किया है, पब्लिक इंटरेस्ट में। अब कहा गया है कि अगर ग़लती ‘अनजाने में’ हो गई हो, या काम ‘काब़िले-इजाज़त’ हो, तो प्रोजेक्ट बच सकता है। अब यहां सवाल यह है कि नदी को कैसे पता चलेगा कि किया गया प्रदूषण ‘जान-बूझकर’ हुआ है या किसी ‘ग़फ़लत’ में?

कोर्ट का ‘भारी जुर्माने’ और ‘बहाली के निर्देशों’ पर भरोसा भी बड़ी मासूमियत है। भारत में न जुर्माने वसूले जाते हैं, न बहाली होती है। एक बार प्रोजेक्ट चालू हो गया तो उसे बंद करना लगभग नामुमकिन है। कहीं यह संदेश न जाए कि पहले बनाओ, बाद में देखेंगे, जैसे कि नगर प्राधिकरण अक्सर करते रहते हैं।

यह कोई अकेली चूक नहीं है, बल्कि यह एक चलन बनता जा रहा है। साल 2024 के ग्रेट इंडियन बस्टार्ड केस में कोर्ट ने क्लाइमेट राइट की बात तो की, लेकिन तुरंत ही पावर लाइनों को मंज़ूरी भी दे दी। पूंजीवादी उद्योग और लॉबी के दबाव में सरकारें अब पर्यावरण को फ़र्ज़ नहीं, बल्कि ‘रुकावट’ मानने लगी हैं। केवल जस्टिस उज्जल भुइयां का असहमति वाला फ़ैसला एक रोशन चिराग़ की तरह है। उन्होंने साफ कहा कि पिछली तारीख़ से मंज़ूरी देना पर्यावरणी शासन के बिल्कुल खिलाफ़ है।

लेकिन, सरकारें अब नीयत की जगह प्रोजेक्ट की क़ीमत तोलती हैं। एयरपोर्ट, हाउसिंग, बड़े उद्योग… सबको बचाने की जल्दी है। सवाल यह है कि अगर अस्पताल, मॉल या फैक्ट्री बिना इजाज़त बन सकते हैं और बाद में मंज़ूर भी तो फिर क़ानून का मतलब क्या बचा?

भारत का पर्यावरणी संकट कोई किताबों की कहानी नहीं। दिल्ली-एनसीआर की हवा जहर है। यमुना, हिंडन, व साबरमती नदियां मर चुकी हैं, जंगल कट रहे हैं और जलवायु आपदाएं बढ़ रही हैं। ऐसे वक़्त में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा पीछे हटना सिर्फ़ तकनीकी ग़लती नहीं बल्कि यह एक नैतिक नाकामी मानी जा सकती है।

जब क़ानून ढीला पड़ता है तो वही नया नियम बन जाता है। पहले भी खनन और बिल्डर लॉबी को छूट दी गई थी, और फिर वही चलन बन गया। अब ‘पहले उल्लंघन करो, बाद में रेगुलराइज़ करा लो’ को मुहर मिल गई है। यह सोच न सिर्फ़ पर्यावरण क़ानून को कमजोर बनाएगा, बल्कि ग़ैर-क़ानूनी कामों को बढ़ावा भी दे सकता है।

पर्यावरण शासन की बुनियाद थी, रोकथाम इलाज से बेहतर है। अब नेताओं का तर्क यह है कि पहले नुकसान करो, बाद में जुर्माना भर दो। जब मुजरिम पेनल्टी देकर पाक़-साफ़ हो सकता है, तो डर किस बात का?

यह फैसला शायद एक मोड़ की तरह याद रखा जाएगा। सरकारी विभागों ने संतुलन ढूंढते-ढूंढते तराज़ू ही झुका दी और फिर वही हुआ जो हमेशा होता है, दाम चुकाएगा पर्यावरण और सांस लेता हुआ आम इंसान।

हरित कार्यकर्ताओं के मुताबिक अब नया नियम कुछ यूं है कि अगर आपने बिना पर्यावरण मंजूरी के प्रोजेक्ट बना लिया, और आप कह सकें कि “हमसे ग़लती अनजाने में हो गई”, प्रोजेक्ट “सार्वजनिक हित” का है, और आप भारी-भरकम जुर्माना भरने को तैयार हैं, तो कोर्ट अब मंजूरी दे सकता है। मतलब साफ़ है कि पहले क़ानून तोड़ो, बड़ा प्रोजेक्ट खड़ा कर दो, फिर पेनल्टी देकर पाक-साफ़ हो जाओ। 

भारत में जुर्माने की वसूली और रेस्टोरेशन का रिकॉर्ड जगजाहिर है। अरावली हो या गोवा की खदानें, पेनल्टी भरकर लोग कानूनी तौर पर ‘क्लीन चिट’ ले चुके हैं, जबकि ज़मीन आज भी बंजर पड़ी है। यह कोई पहला मौका नहीं है। 

ग्रेट इंडियन बस्टार्ड के लिए ओवरहेड केबल दफनाने का आदेश दिया, फिर उसी केस में पावर कंपनियों को छूट भी दे दी। धीरे-धीरे अपवाद ही नियम बनते जा रहे हैं। सवाल सि़र्फ एक फैसले का नहीं है। 

सवाल यह है कि जब देश की हवा ज़हरीली, नदियां मरी हुई और जंगल सिकुड़ रहे हों, तब क्या “पहले नुकसान करो, बाद में जुर्माना भर दो” का फॉर्मूला पर्यावरण न्याय के साथ खरा उतरेगा? कोर्ट ने दरवाज़ा खोला है। अब देखना यह है कि यह दरवाज़ा कितना चौड़ा होगा, और उससे कौन-कौन निकलकर आगे बढ़ जाएगा।



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