अनिश्चितता के भंवर में फंसा है बसपा का भविष्य

क्या बहुजन समाज पार्टी का विलय कांग्रेस में हो जाना चाहिए या फिर मायावती को भाजपा के एनडीए से जुड़ जाना चाहिए? क्या छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों का कोई भविष्य है? क्या वोट-काटवा पार्टियों के चुनावी गठबंधन, तेज ध्रुवीकरण के चलते, कभी भाजपा को सत्ता से बाहर करने की हैसियत रखते हैं? पिछले कई चुनावों के परिणामों के संदर्भ में ये सवाल आज प्रासंगिक हो गए हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में मौजूदा हालात संकेत दे रहे हैं कि बहुजन समाज पार्टी अपने बलबूते दोबारा सत्ता हथियाने में कामयाब नहीं हो सकती है। पार्टी की निरंतर घटती लोकप्रियता ने एक जटिल तस्वीर बना दी है। पारिवारिक कलह और अंतर्विरोधों ने बसपा को इतना प्रभावित कर दिया है कि अब पार्टी संगठन पूरी तरह दिशाहीन नजर आ रहा है। पार्टी सुप्रीमो बहन मायावती की ढलती उम्र और स्वास्थ्य के कारण सक्रियता में कमी आ जाने से राजनीति की डगर और कठिन हो चली है।

अंग्रेजी में पढ़ें : BSP caught in the Whirlpool of Uncertainty…!

राजनैतिक विश्लेषक प्रो. पारस नाथ चौधरी के मुताबिक, वर्तमान में, दलित राजनीति में चंद्रशेखर आजाद का उदय एक नया विकल्प पेश कर रहा है। उनकी करिश्माई नेतृत्व शैली और युवा मतदाताओं के बीच बढ़ती लोकप्रियता ने बसपा को एक नई चुनौती दी है। आजाद की रणनीतियां और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें दलित समुदाय की आंखों में एक नायक बना दिया है। ऐसे में मायावती की बसपा का दोबारा सत्ता में लौटना, खासकर चंद्रशेखर आजाद के बढ़ते प्रभाव के बीच, फिलहाल संभावित नहीं दिखता। वर्तमान परिदृश्य में बसपा के लिए चुनौतियां बरकरार हैं।

मायावती, बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख और चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं एक प्रभावशाली नेता, पिछले कुछ वर्षों में अपनी राजनीतिक ताकत को फिर से मजबूत करने की असफल कोशिशें  कर रही हैं। हालांकि, हाल के चुनावी नतीजों और पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए उनके भविष्य को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। राजनैतिक टिप्पणीकार मिथलेश झा का मानना है कि बहन मायावती का युग अब अस्त हो चला है।

समाज विज्ञानी टीपी श्रीवास्तव बताते हैं कि साल 2007 में बसपा ने उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल किया था, जो मायावती के करियर का शिखर था। लेकिन, इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली, और 2017 के विधानसभा चुनाव में केवल 19 सीटें आईं। 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 12.83 फीसदी वोट शेयर के साथ सिर्फ एक सीट जीत पाई। हाल ही में 2024 के उपचुनावों में सात फीसदी वोट शेयर के साथ उनका प्रदर्शन और कमजोर हुआ है।

मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को पहले पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी दी, फिर हटा दिया। यह अनिर्णय और परिवारवाद की छवि उनकी विश्वसनीयता को प्रभावित कर रही है। द्वितीय श्रेणी का नेतृत्व न होने की वजह से आज बसपा चौराहे पर है, और सुप्रीमो अनिर्णय के पशोपेश में हैं। सवाल पूछा जा रहा है कि बहनजी की विरासत को कौन संरक्षित करेगा?

मायावती का राजनीतिक भविष्य अनिश्चित है। उनकी ‘सफलता’ इस बात पर निर्भर करेगी कि वह अपनी पुरानी रणनीति को नए समय के हिसाब से ढाल पाती हैं या नहीं। लेकिन, वर्तमान में उनकी पार्टी हाशिए पर दिख रही है। बीस साल पहले, यानी 2000 के दशक की शुरुआत में, मायावती का दलित वोट बैंक,  उनकी सबसे बड़ी ताकत था, लेकिन अब पकड़ ढीली हो रही है।

राजनीतिक पर्यवेक्षक डॉ विद्या चौधरी के मुताबिक कांशीराम द्वारा शुरू किए गए बहुजन आंदोलन को मायावती ने आगे बढ़ाया और दलितों को एकजुट कर सत्ता तक पहुंचाया। लेकिन, अब स्थिति बदल गई है। पहले बसपा को उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी दलितों का लगभग एक समान समर्थन मिलता था। 2007 में उनकी सोशल इंजीनियरिंग यानी दलित+ब्राह्मण+मुस्लिम, ने 30 फीसदी से ज्यादा वोट दिलाया। लेकिन, अब बीजेपी, सपा, और नए दलित नेताओं ने इस वोट बैंक में सेंध लगा दी है। 2024 के उपचुनाव में सात फीसदी वोट शेयर यह दिखाता है कि उनका कोर वोट भी उनसे छिटक रहा है।

बीजेपी ने उज्ज्वला और पीएम आवास जैसी कल्याणकारी योजनाओं और हिंदुत्व के एजेंडे से पासी, कोरी व वाल्मीकि आदि जैसे गैर-जाटव दलितों को अपने पाले में खींचा है। 2017 में बीजेपी ने 84 में से 70 आरक्षित सीटें जीती थीं, जो बसपा की कमजोरी को दर्शाता है।

कुछ जानकारों का कहना है कि पश्चिमी यूपी में दलित वोट, जो मायावती का गढ़ था, अब  शिफ्ट हो रहा है। साथ ही, दलित समाज में शिक्षा और जागरूकता बढ़ने से इस वर्ग की आकांक्षाएं बदली हैं, और वे अब एक ही पार्टी से बंधे नहीं रहना चाहते हैं।

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन को 19.3 फीसदी वोट मिले और बसपा ने 10 सीटें जीतीं, लेकिन अकेले 2022 में उनका वोट शेयर 12.83 फीसदी तक गिर गया। यह दर्शाता है कि उनका आधार अब उतना मजबूत नहीं है, जितना पहले था।

मायावती का राजनीतिक भविष्य इस समय कमजोर दिख रहा है, और उनका दलित वोट बैंक अब पहले जैसा एकजुट और मजबूत नहीं रहा। बीस साल पहले वह दलितों की निर्विवाद नेता थीं, लेकिन अब बदलते राजनीतिक समीकरण, नए नेताओं का उदय, और बीजेपी की रणनीति ने उनकी पकड़ को ढीला कर दिया है।

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