भारत के ‘बीमार’ स्वास्थ्य तंत्र को खुद इलाज की है जरूरत

पिछले तीन दशकों में भारत अग्रणी मेडिकल मंडी के रूप में उभरा है। निजी क्षेत्र के हॉस्पिटल और नर्सिंग होम की कुकुरमुत्तई बढ़त ने सुविधाएं तो निश्चित बढ़ाईं हैं, लेकिन अविश्वास और शोषण के लिए भी काफी ख्याति अर्जित की है। पूरे देश में ही स्वास्थ्य सेवाओं का बेड़ा गर्क है। हाल के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को इसके लिए खूब खरी खोटी सुनाई।

सही में, भारत के डॉक्टरों के एक वर्ग को खुद इलाज की जरूरत है। भुक्तभोगियों का आरोप है कि मेडिकल के क्षेत्र में सब कुछ सड़ा हुआ है। "खि़दमत बाद में, तिजारत पहले” का मंत्र 'ओथ ऑफ़ हिपोक्रेटिस' पर भारी पड़ता है। फार्मा माफिया और प्राइवेट अस्पतालों व डॉक्टरों के बीच गठजोड़, एक उभरता हुआ खतरा है, लेकिन सरकारें इसके लिए कुछ भी करती हुई नहीं दिख रही हैं।

Read in English: India's ailing healthcare system needs to heal itself

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में अस्पतालों में गैर-किफायती चिकित्सा देखभाल, दवाओं और किटों की ज़्यादा क़ीमतों पर ध्यान दिलाया। प्राइवेट अस्पताल मरीज़ों को अपनी दुकानों से तरह-तरह की चीज़ें, इंप्लांट, स्टेंट आदि बहुत ज़्यादा क़ीमतों पर खरीदने के लिए मजबूर करते हैं। फैसले में कहा गया कि राज्य और केंद्र सरकारें नियामक तंत्र लगाने और सुधारात्मक उपाय करने में नाकाम रही हैं। वाजिब क़ीमतों पर दवाएं मुहैया कराने में नाकामी ने प्राइवेट इकाइयों को बढ़ावा दिया है। अगर वही दवाएं बाहर सस्ती मिलती हैं तो डॉक्टरों को मरीज़ों को अपने इन-हाउस दुकानों से खरीदने के लिए क्यों मजबूर करना चाहिए।

शीर्ष अदालत ने याद दिलाया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत लोगों को उचित और सस्ती दवाएं पाने का हक है। हालांकि फार्मा लॉबी इस सड़न को रोकने और इस क्षेत्र को खोलने के प्रयासों को नाकाम कर रही है।

अदालत के पाक दालानों से निकले हुए बयान और बजट भाषणों में गूंजती हुई ऊंची प्रतिज्ञाएं, भारत के चिकित्सा परिदृश्य की उस भयानक हक़ीक़त के बिल्कुल उलट तस्वीर पेश करती हैं। ज़मीनी हक़ीक़त एक ऐसे तंत्र की चीख पुकार है जो लालच से भरा हुआ है। भ्रष्टाचार से लबालब है और उन लोगों को नाकाम कर रहा है, जिनकी खि़दमत के लिए इसे बनाया गया है। मेडिकल पेशा, जिसे कभी एक नेक काम माना जाता था, पर अब खि़दमत पर तिजारत को तरजीह देने का इल्ज़ाम है।

सुप्रीम कोर्ट का इल्ज़ाम बहुत संगीन है। यह प्राइवेट अस्पतालों के शिकारी तौर-तरीक़ों, फार्मा की बड़ी कंपनियों के साथ उनके नापाक गठजोड़, और नतीजतन उन भारी लागतों को उजागर करता है जो लाखों लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवा को एक विलासिता बना देती हैं, न कि एक हक।

यह महज़ इक्का-दुक्का घटनाओं का मामला नहीं है; बल्कि एक ‘सिस्टमिक’ सड़न की बात करता है। ‘फार्मा माफिया’ और प्राइवेट अस्पतालों के बीच गठजोड़, जिसमें कुछ डॉक्टर भी शामिल हैं, एक परेशान करने वाली तस्वीर पेश करता है। यहां मुनाफ़े के मकसद ने देखभाल के कर्तव्य को पूरी तरह से ग्रहण कर लिया है। डॉक्टर, जिन्हें शिफ़ा देने वाला होना चाहिए, कथित तौर पर इस शोषणकारी तंत्र के रखवाले के तौर पर काम कर रहे हैं। अक्सर प्रोत्साहन या रिश्वत के ज़रिए वे मरीज़ों को ज़्यादा क़ीमत वाली अंदर की सुविधाओं और नुस्खों की तरफ़ धकेल रहे हैं। यह मरीज़ और डॉक्टर के बीच भरोसे को मिटा देता है। एक ऐसे रिश्ते को बदल देता है जो शिफ़ा पर बना था, अब शक और वित्तीय बोझ से दाग़दार हो गया है।

जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने उजागर किया है कि सरकार की निष्क्रियता भी उतनी ही निंदनीय है।  वाजिब क़ीमतों पर दवाओं की कमी और प्राइवेट इकाइयों के शोषणकारी तौर-तरीक़ों को रोकने में असमर्थता ने अनजाने में उनकी बेलगाम तरक्की को बढ़ावा दिया है। अदालत द्वारा यह याद दिलाना कि लोगों को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उचित और सस्ती दवाएं पाने का हक है, राज्य की इस मौलिक अधिकार को बनाए रखने में नाकामी की एक तीखी निंदा है।

इस समस्या की जड़ में दवा कंपनियों और डॉक्टरों के बीच का अवैध गठजोड़ है। रिपोर्टों के अनुसार, कई डॉक्टर विशेष दवा कंपनियों से कमीशन लेकर महंगी दवाएं लिखते हैं, भले ही मरीज के लिए सस्ते विकल्प मौजूद हों।

केंद्र सरकार ने आयुष्मान भारत और जन औषधि केंद्र जैसी योजनाओं के जरिए सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने का दावा किया है, लेकिन जमीन पर इनका प्रभाव नगण्य है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नियामक तंत्र मजबूत करने और मेडिकल क्षेत्र में पारदर्शिता लाने का निर्देश दिया है, लेकिन अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। इस संदर्भ में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया और सरकार को प्राइवेट अस्पतालों पर सख्त निगरानी रखनी चाहिए। साथ ही, दवाओं, स्टेंट्स और मेडिकल उपकरणों की अधिकतम खुदरा कीमत तय करने की आवश्यकता है। अस्पतालों को बिल में पूरी जानकारी देनी चाहिए ताकि मरीजों को धोखा न दिया जा सके। इसके अलावा, जन जागरूकता बढ़ाकर मरीजों को उनके अधिकारों के प्रति सचेत किया जाना चाहिए। 

सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद, भारत का स्वास्थ्य तंत्र अभी भी लालच, भ्रष्टाचार और अराजकता से जूझ रहा है। जब तक सरकार और नागरिक मिलकर इस व्यवस्था को चुनौती नहीं देंगे, तब तक ‘सबका साथ, सबका विकास’ का सपना अधूरा रहेगा।

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