भारत के चारों तरफ़ इस वक़्त एक अशुभ ‘आर्क ऑफ इंस्टैबिलिटी’ यानी अस्थिरता का घेरा बन गया है। एक-एक कर पड़ोसी मुल्क आर्थिक तबाही, सियासी उथल-पुथल और जनाक्रोश की आग में जल रहे हैं। नेपाल की ‘सोडा वाटर क्रांति’ से लेकर श्रीलंका के ‘राजपक्षा विद्रोह’ तक, नौजवानों की आवाज़ें ज़ोर से गूंजीं, लेकिन सत्ता के क़िलों को हिला पाने में नाकाम रहीं। ये अलग-थलग वाक़ये नहीं हैं, बल्कि पूरी दक्षिण एशिया की साझा त्रासदी है।
काठमांडू की गलियों में नौजवानों का ‘सोडा वाटर’ आंदोलन उबल रहा है। इस महीने, 20-25 बरस के नौजवान भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और भाई-भतीजावाद के खिलाफ सड़कों पर उतरे। ग़ुस्सा इतना तेज़ था कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को कुर्सी छोड़नी पड़ी। सोशल मीडिया पर रोक ने आग को और भड़काया। नेपाल में बार-बार सरकारें बदली हैं, लेकिन यह बग़ावत खास है—यह नई पीढ़ी की बेचैनी है, जो रेमिटेंस और मदद पर टिकी अर्थव्यवस्था में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं देख पा रही।
बांग्लादेश का ‘डेवलपमेंट मॉडल’ अब ढहता नज़र आ रहा है। जुलाई 2024 की ‘कोटा विरोधी क्रांति’ ने सियासत को हिला दिया। पंद्रह साल तक राज करने के बाद शेख़ हसीना को मुल्क छोड़ना पड़ा। 2025 में नोबेल विजेता मुहम्मद यूनुस की अंतरिम हुकूमत है, लेकिन सुधार ठहरे हुए हैं। बेरोज़गारी, महंगाई और मानवाधिकार उल्लंघनों ने जनता को निराश किया। छात्र नेताओं का कहना है कि अगर खुला चुनाव जल्दी न हुआ, तो सड़कों पर फिर से आग भड़केगी।
श्रीलंका की हालत सबसे ज़्यादा नाज़ुक है। 2022 में ‘अरागलया आंदोलन’ ने राजपक्षे परिवार को हटाया। 2024 में अनुरा कुमारा दिसानायके की जीत से उम्मीद जगी, मगर 2025 तक साफ हो गया कि आईएमएफ बेलआउट और विदेशी क़र्ज़ का बोझ देश की नीतियों को बंधक बनाए हुए है। कोलंबो में शांति का नक़ाब है, लेकिन अंदर से जनता परेशान है। बेरोज़गारी, महंगाई और आईएमएफ के सामने गिड़गिड़ाती सरकार, ये सब मिलकर हालात को बिगाड़ रहे हैं। चीन से लिए गए क़र्ज़ का बोझ भी सिर पर है। पर्यटन थोड़ा संभला है, पर असमान विकास और मंदी का डर अभी भी कायम है।
पाकिस्तान में हालात और बदतर हैं। 2024 के चुनाव धांधली और हिंसा में डूबे रहे। इमरान ख़ान जेल में हैं और हुकूमत-सेना का टकराव गहराता जा रहा है। महंगाई 40 फीसदी तक पहुंच चुकी है। सीमावर्ती सूबों में आतंकवाद और उधार का बोझ जनता की ज़िंदगी दुश्वार कर रहा है। माली तबाही, सियासी उथल-पुथल और असुरक्षा—ये सब मिलकर ‘पॉलीक्राइसिस’ की तस्वीर बनाते हैं, जिसमें स्थिरता नामुमकिन हो जाती है।
पर्यटन पर चलने वाला मालदीव भी अस्थिर है। राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्ज़ु का झुकाव चीन की तरफ़ बढ़ा है। संसद में अस्थिर गठबंधन, क़र्ज़ का बढ़ता बोझ, रुके हुए सुधार और भ्रष्टाचार के मामले देश को हिला रहे हैं। भारत-चीन की खींचतान ने इस छोटे से मुल्क को भू-राजनीतिक मोहरा बना दिया है।
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक फैले ये मुल्क सिर्फ़ अंदरूनी संकटों में नहीं, बल्कि बाहरी ताक़तों की पकड़ में भी फंसे हैं। नेपाल की रेमिटेंस, बांग्लादेश का वस्त्र उद्योग, श्रीलंका और मालदीव का पर्यटन, सब सतही सहारे हैं। जैसे ही विदेशी मदद डगमगाती है, संकट फौरन सिर उठाता है।
सबसे बड़ी त्रासदी नौजवानों की है। उनकी उम्मीदें ‘नई अर्थव्यवस्था’ की हैं, लेकिन सामने बेरोज़गारी और पलायन की सच्चाई है। यही विसंगति बार-बार सड़कों पर विस्फोट की शक्ल लेती है।
दक्षिण एशिया की ये अस्थिरता भारत के लिए दोहरी चुनौती है। एक तरफ़ सुरक्षा का ख़तरा है, दूसरी तरफ़ कूटनीति और कारोबार पर असर। भारत को बार-बार यह सोचना पड़ता है कि किस पड़ोसी को सहारा दे, किससे दूरी बनाए। लेकिन, सच्चाई यह है कि जब तक ये मुल्क आर्थिक आत्मनिर्भरता और मज़बूत मिडिल क्लास नहीं बनाते, तब तक यह अस्थिरता का झूला चलता रहेगा।
हक़ीक़ी स्थिरता सिर्फ़ लोकतांत्रिक बदलाव से नहीं आएगी। असली हल टिकाऊ आर्थिक ढांचे से निकलेगा। जब तक घरेलू उत्पादन और खेती मज़बूत नहीं होगी, मिडिल क्लास नहीं फैलेगा, और तालीम व रोज़गार में निवेश नहीं होगा, तब तक यह इलाक़ा संकट से बाहर नहीं आ सकता।
आज सवाल यह नहीं कि अगला धमाका कहाँ होगा, बल्कि यह है कि क्या इन मुल्कों के हुक्मरान जनता की उम्मीदों को समझकर सही राह पकड़ पाएंगे या फिर बाहरी ताक़तों और अंदरूनी दरारों में उलझकर यूं ही डगमगाते रहेंगे।
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