मोहब्बत का 'गुनाह'? वह सच जिससे डरता है समाज...!

वह अदालत के सामने खड़ी थी, उसकी आंखों में सवाल नहीं, एक जंग थी। उसका 'अपराध'? एक लिव-इन रिलेशनशिप। समाज की नज़रों में वह 'बदचलन' थी, लेकिन अपने लिए, वह आज़ादी की सेनानी थी। उसने पूछा, "क्या प्यार की इजाज़त के लिए सर्टिफिकेट चाहिए?" उसकी आवाज़ में वही दर्द था जो सदियों से दबाया गया है। यह मामला सिर्फ एक लड़की का नहीं, हमारे समाज के ढांचे की जड़ों पर प्रहार था। क्या न्याय व्यवस्था समाज के दोगलेपन के आगे झुकेगी?

सच कहा है किसी दार्शनिक ने, "मानव जीवन में सेक्स एक खूबसूरत कला है, जो प्रेम, अंतरंगता और समझ के रंगों से रंगा जाता है।" दुनिया का सबसे बड़ा खेल कोई फुटबॉल या क्रिकेट नहीं, बल्कि मोहब्बत और जज़्बात का खेल है। इंसान का जन्म ही इसके बिना अधूरा है। फिर भी, समाज ने इसके चारों तरफ़ डर, झिझक, शर्म और पाबंदियां खड़ी कर दी हैं। मानो यह कोई गुनाह हो। भूल जाते हैं नैतिकता के ठेकेदार कि "इश्क़ वो दरिया है जिसमें डूब के ही जाना है,  सफ़िना कोई भी हो, किनारा नहीं आता।"

लोग रोमांस, फ्लर्टिंग, ख़्वाबों भरी मुलाक़ातें और छुप-छुपकर निकाह या शादी की ख्वाहिश रखते हैं, लेकिन समाज अक्सर इन नाज़ुक ख्वाहिशों को कुचल देता है। सच तो यह है कि मोहब्बत और जिस्मानी ताल्लुक इंसान में रचनात्मकता भरते हैं। यही आदमियत को शायरी, साहित्य, आर्ट, पेंटिंग, स्कल्पचर, संगीत के सुरों का तोहफ़ा देता है।

टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी फरमाते हैं, "सेक्स केवल शारीरिक मिलन नहीं है; यह दो आत्माओं का एक-दूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास का उत्सव है। यह कल्पना या सोचना भी  मुश्किल है कि मोहब्बत और जिस्म के बिना दुनिया कैसी होती। वाकई, "प्रेम से बढ़कर न कोई पूजा है, न कोई जज्बा। जहां जिस से भी दिल में दिल मिले, वही तीर्थ है।"

मज़हब ने हमेशा हमारी सोच पर असर डाला। कुछ मज़हब इसे नीचा बताकर शर्म और अपराधबोध पैदा करते हैं। वहीं, कुछ इसे रहस्य और आध्यात्मिक मेल बताते हैं। सच तो यह है कि जिस समाज में स्वस्थ यौन अभिव्यक्ति की इजाज़त नहीं, वहां इबादत भी दिल से नहीं होती। सामाजिक कार्यकर्ता टीपी श्रीवास्तव कहते हैं, "सेक्स वह पवित्र बंधन है जो मानव हृदय को जोड़ता है, जब यह सम्मान और आपसी सहमति के साथ अनुभव किया जाता है।"

आज की दुनिया में सेक्स ख़ुद एक नया ‘धर्म’ बन चुका है। खूबसूरत लोग, अपने-अपने तरीक़े से, इसे अपनाते और मानते हैं। बिना जिस्मानी सुकून के ज़हन भटकता है। इंसानियत को अब यह समझाना होगा कि मोहब्बत और सेक्स कोई गुनाह नहीं, बल्कि ज़रूरी ताक़त है। हायर आध्यात्मिक स्तर पर जाएं तो महसूस होता है कि "जिस्म और रूह का रिश्ता ही असल मोहब्बत है,  बाक़ी तो सब दिखावे का सौदा है।" 

गर्भनिरोध ने इंसान को आज़ादी दी है। अब बिना डर के नए रिश्ते और तजुर्बे मुमकिन हैं। कामकाजी औरतें घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर अपनी पहचान बना रही हैं। एकल माता-पिता, तलाक, लिव-इन और समलैंगिक रिश्ते अब धीरे-धीरे समाज का हिस्सा बन रहे हैं। ये बदलाव कुछ लोगों को चुनौती लगते हैं। मर्दाना अहम को चोट पहुंचती है, परिवार टूटते हैं, मगर इस हक़ीक़त को झुठलाना नहीं चाहिए। नए रिश्ते, नई परिभाषाएं भी इंसानी रिश्तों का विस्तार ही हैं। देखा जाए तो, "समय का दरिया न पीछे मुड़ता है, न रुकता है, जो ठहर गए वहां, खो गए वहीं।"  

कभी कामसूत्र जैसी रचनाओं ने कामुकता को उत्सव की तरह मनाया, लेकिन औपनिवेशिक सोच ने उसे पाप जैसा बना दिया। अब वक़्त आ गया है कि हम अपनी ही परंपरा से सबक लें और सेक्स को अपराध नहीं, बल्कि रज़ामंदी, मोहब्बत और रूहानी जुड़ाव का ज़रिया मानें। 

तलाक को असफलता नहीं, बल्कि एक नए रिश्ते की तलाश की कोशिश समझना चाहिए। परिवार सिर्फ़ संयुक्त या एकल नहीं, एक चुना हुआ परिवार भी हो सकता है। कहते हैं कि "जहां दिल लगे वही घर है, वर्ना दीवारों से किसी को मोहब्बत नहीं होती।" सबूत बताते हैं कि जहां अधिक आज़ादी है, वहां ज़िंदगी ज़्यादा ख़ुशनुमा है और अपराध कम हैं। प्यार चाहे रोमांटिक हो, पारिवारिक या दोस्ताना, यह रिश्तों की नींव है। सेक्स शिक्षा, संवाद और समर्थन से एक मजबूत समाज बन सकता है। 

आख़िरकार, मोहब्बत और जिस्मानी नज़दीकी इंसानियत की ज़िंदगी की रगें हैं। इन्हें दबाकर नहीं, बल्कि उत्सव बनाकर जीना ही तरक़्क़ी का रास्ता है। एक शायर ने कहा है, "इश्क़ और मोहब्बत बग़ावत नहीं, ये तो इंसान की असल क़ायनात है।"

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