सनातनी परंपरा में ‘चिरंजीवी’ उसे कहा जाता है जो अमर हो अर्थात जिसका कोई अंत न हो। वैदिक परंपरा में ऐसे आठ चिरंजीवियों का उल्लेख आता है। ये आठों व्यक्तित्व किसी न किसी वचन, नियम या शाप से बंधे, दिव्य शक्तियों से संपन्न हैं। योग में जिन अष्ट सिद्धियों की बात कही गई है, वे सारी शक्तियां इनमें विद्यमान है। जो लोग परामनोविज्ञान को जानते और समझते हैं, वे इन पर विश्वास करते हैं।
इन आठ लोगों में बलि, ऋषि मार्कंडेय, हनुमान, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विभीषण, वेदव्यास और परशुराम को शामिल किया गया है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार यदि कोई व्यक्ति हर रोज इन ‘अष्ट चिरंजीवी’ के नाम भी लेता है तो उसकी उम्र का लंबा होना माना जाता है।
महाराज बलि को सबसे प्रथम चिरंजीवी माना जाता है। पाताल लोक के राजा महाबलि ऋषि कश्यप के पड़पोते, हिरण्यकश्यप के प्रपौत्र, प्रहलाद के पोते तथा विरोचन के पुत्र थे। राजा बलि का सम्पूर्ण राज्य सुख-शांति तथा समृद्धि से भरा हुआ था। इस कारण उन्होंने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन कर तीनों लोकों पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने की योजना बनाई। जब इस खबर के बारे में स्वर्गलोक में देवताओं को पता चला तो सम्पूर्ण देवताओं में तनाव तथा भय का माहौल बन गया। इसके पश्चात स्वर्ग के राजा देवराज इंद्र के अनुरोध पर देवताओं की सहायता के लिए विष्णु आगे आए। भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और राजा बलि से मुलाकात की। उन्होंने असुरों के राजा से उन्हें जमीन दान देने के लिए कहा। भगवान विष्णु के वामनावतार के बारे में जाने बिना ही बलि उन्हें ज़मीन देने के लिए तैयार हो गए। वामनावतार ने अपना विशाल रूप धारण किया एवं अपने दो पगों में ही सम्पूर्ण स्वर्ग व पृथ्वी को नाप लिया। उनके दो कदन रखने के पश्चात उनके लिए तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान शेष नहीं बचा तो राजा बलि ने अपना वचन पूरा करने के लिए वामनावतार को उनका तीसरा पग रखने के लिए अपना सिर समर्पित कर दिया। इसके पश्चात, वामन ने राजा बलि के ऊपर अपना तीसरा पग रखकर उन्हें पाताल लोक भेज दिया तथा देवताओं के मध्य शांति तथा सुरक्षा को पुनः स्थापित किया। वामनावतार ने बलि को सतयुग में इंद्र बनने का वरदान दिया। बलि को उनकी निस्वार्थ भक्ति तथा अपनी वचनबद्धता के कारण एक बार अपनी भूमि पर आने का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। इस प्रकार, असुरों के राजा महाबली का अपनी भूमि पर स्वागत करने के लिए केरल में प्रत्येक वर्ष ओणम का त्योहार मनाया जाता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार दूसरा चिरंजीवी ऋषि मार्कंडेय को माना जाता है। वह भगवान विष्णु तथा शिव के अनन्य भक्त थे। भृगु वंश से सम्बन्ध रखने वाले ऋषि मार्कंडेय मरुदमती तथा ऋषि मृकंडु के पुत्र थे। ऋषि मृकंडु तथा मरुदमती एक पुत्र की कामना करते हुए भगवान शिव की पूजा करते थे। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर ने पूजा से प्रसन्न होकर उन्हें दो विकल्प दिए। प्रथम यह कि या तो वह अधिक बुद्धिमान पुत्र का चुनाव कर सकते है किन्तु वह बालक अल्पायु होगा। या, वह ऐसा बालक चुन सकते है जिसका जीवन तो लम्बा हो किन्तु वह कम बुद्धि वाला होगा। भगवान शिव द्वारा ऐसा विकल्प रखने पर ऋषि मृकंडु ने बुद्धिमान पुत्र का चुनाव किया। इस प्रकार ऋषि को मार्कंडेय नामक एक बुद्धिमान पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसकी मृत्यु 16 वर्ष की आयु में होनी तय थी। जब मार्कंडेय बड़े हुए तो शिव के भक्त बन गए। 16 वर्ष के मार्कंडेय एक दिन मंदिर में जब शिव की पूजा कर रहे थे तो मृत्यु के देवता यम उनके प्राण लेने के लिए आए। यमराज ने रस्सी फेंकी और मार्कंडेय के गले में फंदा डाल दिया। फंदा डलते ही मार्कंडेय शिवलिंग से लिपट गए व शिव की आराधना करने लगे। अपने भक्त की ऐसी हालत देख शिव को क्रोध आ गया। इसके बाद शिव तथा यमराज के मध्य भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में शिव ने यम को परास्त कर दिया एवं मार्कंडेय को सदा जीवित रहने का वरदान दिया। बाद में ऋषि मार्कंडेय ने ही ‘महामृत्युंजय मंत्र’ की रचना की।
परशुराम भगवान विष्णु के ‘आवेश अवतार’ हैं, जो वर्तमान समय में भी इस पृथ्वी पर तीसरे चिरंजीवी के रूप में जीवित हैं। इनका जन्म सतयुग और त्रेता के संधिकाल में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया यानी अक्षय तृतीया को हुआ था। परशुराम ने 21 बार पृथ्वी से समस्त क्षत्रिय राजाओं का अंत किया था। परशुराम का प्रारंभिक नाम ‘राम’ था। राम ने शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। शिव तपस्या से प्रसन्न हुए और राम को अपना फरसा यानी ‘परशु’ दिया। इसी वजह से राम ‘परशुराम’ कहलाने लगे। विनाशकारी स्वभाव वाले तथा विष्णु के छठे अवतार, परशुराम का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। लेकिन, वह आक्रामकता, बहादुरी, युद्ध तथा कई प्रकार के दूसरे क्षत्रिय गुणों से भरपूर थे। दोनों कौशल होने कारण उन्हें ‘ब्रह्म-क्षत्रिय’ के रूप में जाना जाता था। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार एक बार कार्तवीर्य सहस्रार्जुन नामक राजा तथा उनकी सम्पूर्ण सेना ने भगवान परशुराम के पिता की कामधेनु गाय को छीनने की कोशिश की, परंतु परशुराम ने राजा तथा उसकी सम्पूर्ण सेना को परास्त कर दिया। अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए कार्तवीर्य के पुत्र ने परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता की हत्या कर दी। इसके पश्चात अत्यंत क्रोध में भगवान परशुराम ने उसके पुत्र सहित उसके सभी दरबारियों को मार डाला।
विभीषण चौथे अमर व्यक्ति हैं। धर्म के सच्चे धारक तथा राक्षस राजा रावण के छोटे भाई विभीषण भले ही एक राक्षस थे परन्तु वह सम्पूर्ण धर्म का रखने वाले तथा एक उच्च चरित्र वाले व्यक्ति थे। उन्होंने रावण को माता सीता भगवान राम को लौटाने तथा शांति बनाए रखने के लिए सलाह दी थी। विभीषण अपने भाई रावण को सही मार्ग पर लाना चाहते थे। लेकिन, रावण ने अपने भाई की सलाह नहीं मानी। इसके बाद विभीषण भगवान राम की सेना में शामिल हो गए तथा रावण को हराने में उनकी सहायता की। रावण को परास्त करने के बाद भगवान राम ने विभीषण को लंका राजा बना दिया। विभीषण ने रावण द्वारा भटकाई प्रजा को अधर्म के मार्ग से धर्म के मार्ग की ओर मोड़ा। विभीषण की बेटी त्रिजटा ने अशोक वाटिका में सीता की अच्छे से देखभाल की। पृथ्वी से जाने से पूर्व भगवान राम ने उन्हें हमेशा पृथ्वी पर रहने तथा लोगों को धर्म की राह पर उन्मुख करने का आदेश दिया।
प्राचीन ग्रंथों की मान्यताओं के अनुसार पांचवे चिरंजीवी के रूप में हनुमान को जाना जाता है। उनके पिता का नाम केसरी तथा माता का नाम अंजना था। इसके अलावा हनुमान वायु पुत्र अर्थात पवन देवता के पुत्र के रूप में भी जाने जाते हैं। कहा जाता है कि एक बार माता अंजना पुत्र प्राप्ति के लिए शिव की पूजा कर रही थीं तथा राजा दशरथ भी वही पुत्रकाम यज्ञ कर रहे थे। यज्ञ के फलस्वरूप दशरथ को अग्नि देव द्वारा पवित्र पायसम प्राप्त हुआ, जिन्हें उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों कौशल्या, कैकई और सुमित्रा के बीच बांट दिया किन्तु एक कीट ने पायसम का एक कण उठा लिया और उसे जंगल के ऊपर उड़ते हुए उस स्थान पर गिरा दिया जहां अंजना प्रार्थना कर रही थीं। वायु देवता ने उस पायसम को माता अंजना के हाथों में पहुंचा दिया। इसके सेवन से उन्होंने हनुमान को जन्म दिया। रामायण के सुन्दरकाण्ड में भगवान हनुमान के जन्म के बारे में विस्तार से बताया गया है। बाद में सीता ने हनुमान को लंका की अशोक वाटिका में राम का संदेश सुनने के बाद आशीर्वाद दिया था कि वह अजर-अमर रहेंगे। अजर-अमर का अर्थ है कि जिसे न कभी मौत आएगी और न ही बुढ़ापा। इस कारण हनुमान को हमेशा शक्ति का स्रोत माना गया है।
ऋषि वेदव्यास को छठवां चिरंजीवी माना जाता है। उनका जन्म एक द्वीप पर हुआ था और वह श्याम वर्ण थे इसलिए उन्हें ‘कृष्ण द्वैपायन’ के नाम से भी जाना जाता है। वेदव्यास सत्यवती तथा पराशर के पुत्र थे। वेदव्यास ने महान महाकाव्य श्रीमद्भागवतम तथा महाभारत की रचना की। वेदव्यास द्वारा 28 वेदों तथा पुराणों का भी संकलन किया गया। विष्णु पुराण के अनुसार, वेदव्यास एक ऐसी उपाधि है जो वेदों का संकलन करने वाले व्यक्तियों तथा भगवान विष्णु के अवतारों को दी जाती है।
ऋषि कृपाचार्य सातवें चिरंजीवी हैं। कृपाचार्य गौतम ऋषि पुत्र हैं। उन्होंने कुरु वंश के युवा राजकुमारों को युद्धकला सिखाई। कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद उन्होंने अभिमन्यु के पुत्र को भी युद्ध कला सिखाई। महाभारत महाकाव्य में वेदव्यास द्वारा कृपाचार्य की असीम शक्तियों का वर्णन किया गया है। उन्होंने बताया है कि कृपाचार्य इतने शक्तिशाली व्यक्ति थे जो अकेले युद्ध के मैदान में 60 हजार योद्धाओं को परास्त कर सकते थे। कृपाचार्य में सत्य एवं निष्पक्षता जैसे कई महान गुण थे। इसी कारण उन्हें सभी पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। भगवान श्री कृष्ण द्वारा उन्हें अमरता का वरदान प्राप्त हुआ।
कृपाचार्य की बहन कृपी व द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को आठवां चिरंजीवी माना जाता है। कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरवों की ओर से युद्ध करने वालों में कृपाचार्य के अतिरिक्त अश्वत्थामा ही जीवित बचे थे। द्रोणाचार्य तथा कृपी ने अश्वत्थामा को पुत्र रूप में पाने के लिए शिव की घोर तपस्या की थी। अश्वत्थामा अपने मस्तक पर जन्म से ही एक मणि लेकर पैदा हुए थे जो कि शिव की तीसरी आंख का प्रतिनिधित्व करती थी। अश्वत्थामा के सिर पर लगी मणि उन्हें भूख, प्यास व थकान इत्यादि से बचाती थी तथा सभी जीवों पर विजय पाने की शक्ति प्रदान करती थी। द्वापर में जब कौरव व पांडवों में युद्ध हुआ था, तब अश्वत्थामा ने कौरवों का साथ दिया। महाभारत के अनुसार अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के सम्मिलित अंशावतार थे। अश्वत्थामा अत्यंत शूरवीर व प्रचंड क्रोधी स्वभाव के योद्धा थे। युद्ध के अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को चिरकाल तक पृथ्वी पर भटकते रहने का शाप दिया।
अश्वत्थामा के संबंध में प्रचलित मान्यता है कि मध्य प्रदेश के बुरहानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर एक किला है। इसे ‘असीरगढ़ का किला’ कहते हैं। इस किले में भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है। यहां के स्थानीय निवासियों का कहना है कि अश्वत्थामा प्रतिदिन इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करने आते हैं। कहा जाता है कि भगवान विष्णु जब कल्कि रूप में अवतार लेंगे, तो ये सभी चिरंजीवी दुनिया के सामने आ जाएंगे।
Related Items
दुनिया को भारत का अद्भुत और शाश्वत उपहार है योग
ट्रंप की नीतिगत कलाबाजियों से दुनिया में फैल रहा है भ्रम
वैश्वीकरण की दुनिया में देशों के ‘आकार’ की कठोर सच्चाई