गलियों में गालियों की गूंज यानी भाषाई समाजवाद की दस्तक…!

अश्लील गालियों से सामना भारत के हर क्षेत्र में करना पड़ता है। हर भाषा में वही, महिला के जननांगों को केंद्रित करते हुए भद्दे, अश्लील जुमले! अपने बृज क्षेत्र में शादियों में ‘गारी’ गाने के रिवाज ने इसे मान्यता का प्रमाण पत्र दे दिया है।

भाषाई जानकर टीपी श्रीवास्तव कहते हैं कि गालियों की जब लत पड़ जाए तो लिहाजदारी शर्म से जुदा हो जाती है। पहले राम-राम, श्याम-श्याम, जय गोपाल जी की या राधे-राधे से दिन शुरू होता था। हमारी गलियां, जहां कभी ‘सलाम’ और ‘नमस्ते’ की मधुर आवाज गूंजती थी, अब गालियों की ऐसी बाढ़ में क्या बच्चा, क्या बूढ़ा, क्या औरत, क्या आदमी, सभी ‘ट्रांस जेंडर’ लगते हैं! इसे ही संस्कारों की ‘मां-बहन करना’ कहते है।

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, "जुबानी हमले, वो लफ्जों का गटर, हमारे शहरों में बह रहा है, जहां गंदे अल्फाज़ ऐसे उछल रहे हैं जैसे टूटा हुआ नाला। औरतें, बुजुर्ग, और हर सांस लेने वाला इस गाली-गलौज के निशाने पर है, जहां सेक्स से भरी ताने और नीचा दिखाने वाली बातें हर बातचीत का मसाला बन गई हैं।"

अब तो औरतें भी इस मैदान में कूद पड़ी हैं, मर्दों से गाली में टक्कर ले रही हैं और साबित कर रही हैं कि वे भी कीचड़ उछाल सकती हैं। ये कैसी बराबरी है, भाई? छतें तोड़ने की बात छोड़ो, हम तो शराफत को हथौड़े से तोड़ रहे हैं, गालियों की तौहीन कर रहे हैं। हिंदी से तमिल, बंगाली से तेलुगु, हर जुबान में गालियों का अपना चटपटा सूप तैयार है, और हम सब इसे ऐसे चटखारे लेकर पी रहे हैं जैसे बारिश में चाय।

मैथिली भाषा विशेषज्ञ प्रो. पारस नाथ चौधरी इसे ‘गैर-हिंसक हमला’ कहते हैं, यानी हम बिना मुक्का मारे अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। खीज, बेकार का गुस्सा, मायूसी—जो चाहो चुन लो। जिंदगी प्रेशर कुकर है, और गालियां वो भाप जो हम फटने से पहले निकालते हैं। मगर मजा देखो, कोई पलक भी नहीं झपकता। हम इस लफ्जी प्रदूषण में इतने डूबे हैं कि ये अब बस बैकग्राउंड का शोर है। “पत्थर मारो तो हड्डी टूटे,” ठीक है, मगर लफ्ज़? वो जख्म दे रहे हैं जो कोई देख नहीं पाता।"

बुजुर्गों को सबसे ज्यादा सुनना पड़ता है। उनकी उम्र की इज्जत को ऐसी गालियों से रौंदा जाता है कि उनके दांत कांप जाएं। औरतें भी सबसे गंदे, लैंगिक तानों का शिकार हैं, जैसे उनकी मौजूदगी ही गालियों का दावतनामा हो। और इंटरनेट? वाह, ये तो लफ्जों का जंगल है, जहां गुमनामी कायरों को गालीबाज बादशाह बना देती है।

और, हद तो ये है कि हमारा दिमाग भी पुराना है। प्रोफेसर साहब ठीक कहते हैं—"हम सैकड़ों साल पुरानी गालियों को रिसाइकिल कर रहे हैं। नयापन कहां है, यार? एआई और चांद पर पहुंचने के जमाने में क्या हम नई, मसालेदार गालियां नहीं बना सकते? फेमिनिस्ट मूवमेंट ने यहां चूक कर दी; सोचो, मर्दों पर निशाना साधने वाली गालियों की मार्केटिंग, एक आंख मारकर और हैशटैग के साथ। #गालीदेपहलवान, कैसा रहे? मगर नहीं, हम पुराने गंदे लफ्जों में ही अटके हैं, बस डिजिटल पैकिंग नई है।" तो लोग ऐसा क्यों करते हैं? क्योंकि हम इंसान हैं, गालियां हमारा सेफ्टी वॉल्व हैं, दुनिया को ठेंगा दिखाने का तरीका। 

इंसान की गालियों, अपशब्दों और जुबानी हमलों की लत एक जटिल जैविक, मानसिक और सांस्कृतिक मिश्रण है। बायोलॉजिकल गाली देना एक प्राचीन प्रतिक्रिया है, जो दिमाग के एक भाग से निकलती है। तनाव या खतरे में यह भावनात्मक केंद्र सक्रिय होता है, और गाली दर्द सहने की क्षमता बढ़ाती है, जैसे होम्योपैथिक दवा। विकास की नजर से, यह शारीरिक हिंसा का सुरक्षित विकल्प था, जिससे पुराने इंसान बिना खून बहाए गुस्सा निकालते थे।

मानसिक रूप से, गालियां दबी हुई खीज, गुस्सा या बेबसी को बाहर निकालती हैं। सिग्मंड फ्रायड कह सकते हैं कि ये मन की जंगली इच्छाएं हैं, जो शिष्टाचार को ठेंगा दिखाती हैं। सांस्कृतिक रूप से, गालियां समाज के निषिद्ध विषयों—सेक्स, धर्म व शारीरिक क्रिया—से ताकत लेती हैं। ये दोस्तों में रिश्ते जोड़ती हैं, मगर दुश्मनों पर हथियार बनती हैं। सामाजिक तनाव, आर्थिक दबाव और राजनीतिक खींचतान में इनकी जरूरत बढ़ जाती है।

डॉ लोला दत्त झा के मुताबिक, गालियों की लत इसलिए है क्योंकि यह एक साथ स्वाभाविक और वर्जित हैं। यह इंसान की उस अंतर्द्वंद्व की चीख हैं, जो जंगलीपन और सभ्यता के बीच फंसा है। गालियां वह तेज फुसफुसाहट हैं, जो हमारी अंदर की उथल-पुथल बयान करती हैं।

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