कल तक जिस पुलिस को 'रक्षक' समझा जाता था, आज भारत के अधिकांश प्रदेशों में वही व्यवस्था 'भक्षक' बन चुकी है! गुजरात से लेकर तमिलनाडु तक, दिल्ली से लेकर असम तक, हर राज्य में पुलिस के जुल्म, रिश्वतखोरी और हिरासत में हत्याओं के मामले सामने आ रहे हैं। ये कोई अलग-थलग घटनाएं नहीं, बल्कि एक टूटी हुई व्यवस्था के लक्षण हैं, जहां सिपाही नहीं, सरकारी गुंडे राज कर रहे हैं!
देशभर में पुलिसिया जुल्मों की तमाम दास्तानें तैर रही हैं। गुजरात के खेड़ा जिले में दो पुलिस वालों ने एक महिला और उसके परिवार से ₹3.75 लाख की मांग की और धमकी दी कि अगर पैसे नहीं दिए तो गुजरात मनी लेंडर्स एक्ट के तहत केस दर्ज कर देंगे! एसीबी ने इन्हें पकड़ा, लेकिन सवाल यह है कि आम आदमी का विश्वास कैसे लौटेगा?
सीबीआई ने दो दिल्ली पुलिस वालों को ₹10 लाख रिश्वत लेते पकड़ा। यह कोई पहला मामला नहीं है। शहरों में पुलिस का यही 'बिजनेस मॉडल' चल रहा है! गुवाहाटी के पुलिस इंस्पेक्टर भार्गव बोरबोरा ने एक मामूली ट्रैफिक नियम तोड़ने पर ज़ोमैटो वाले ज्ञानदीप हज़ारिका को बेरहमी से पीटा। वीडियो वायरल हुआ तो सस्पेंड किया गया, लेकिन सज़ा कब मिलेगी?
लखनऊ में कांग्रेस कार्यकर्ता की मौत हो गई जब पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर ज़्यादती की। गवाहों का कहना है कि लाठियां, आंसू गैस, और गोलियां चलीं! अमृतसर में एक शख़्स पुलिस हिरासत में मर गया। परिवार ने यातना का आरोप लगाया, लेकिन पुलिस का जवाब? "खुदकुशी कर ली!" जनता का भरोसा कैसे बचेगा?
किसान आंदोलन के दौरान हरियाणा पुलिस ने पानी की बौछारों और लाठियों से शांत प्रदर्शनकारियों को खून-खराबा कर दिया। क्या यही है 'लोकतंत्र की रक्षा'? एक नौजवान को बिना वजह थाने में बंद करके इतना पीटा गया कि हड्डियां टूट गईं। परिवार ने गुहार लगाई, लेकिन न्याय कहां मिला?
लॉकडाउन के नियम तोड़ने के आरोप में पुलिस ने पिता-बेटे को इतना टॉर्चर किया कि दोनों की मौत हो गई। देशभर में आग लग गई, लेकिन क्या सुधार हुआ? सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने छह पुलिसकर्मियों के खिलाफ केस दर्ज किया, जिन्होंने अपने ही साथी कॉन्स्टेबल को जेल में तड़पा-तड़पा कर मार डाला! अगर अपनों पर ही दया नहीं, तो आम जनता का क्या होगा? मालदा की एक बंगाली महिला और उसके नाबालिग बेटे को दिल्ली पुलिस ने पकड़कर बेरहमी से पीटा, फिर ₹25,000 वसूले! यह है हमारी 'सुरक्षा व्यवस्था'?
एनएचआरसी के मुताबिक, साल 2019 से अब तक 194 से ज़्यादा हिरासत में मौतें हुई हैं, लेकिन सज़ा? नगण्य! मुठभेड़ें अब ‘लेटेस्ट फैशन’ में हैं। 95 फीसदी मामलों में पुलिस बरी हो जाती है, क्योंकि जांच खुद पुलिस ही करती है!
आज भी पुलिस 'पुलिस एक्ट 1861' के तहत काम करती है, जो अंग्रेज़ों ने गुलाम बनाने के लिए बनाया था! सुप्रीम कोर्ट के प्रकाश सिंह केस (2006) में सुधार के आदेश दिए गए, लेकिन किसी राज्य ने पूरी तरह लागू नहीं किया! नेता-पुलिस गठजोड़ की अलग कहानी है! पुलिस अफसरों की पोस्टिंग नेताओं के इशारे पर होती है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस!
बात ट्रेनिंग की हो तो यह बस एक दिखावा है! पुलिस को ‘स्मार्ट’ यानी संवेदनशील, आधुनिक, जवाबदेह बनाने की बात होती है, लेकिन हकीकत कहीं दूर है। लाठी-गोली चलाना ही ट्रेनिंग है!
तो आखिर क्यों बेकाबू है पुलिस? डर का अभाव – सज़ा लगभग असंभव, अंग्रेज़ी जमाने का कानून – पुलिस एक्ट 1861, नेता-पुलिस गठजोड़ – पोस्टिंग पर राजनीति, ट्रेनिंग का नाम और अत्याचार का काम।
तो फिर समाधान क्या है? 1861 एक्ट खत्म कर नया कानून, स्वतंत्र पुलिस शिकायत आयोग, हर थाने और लॉकअप में 24x7 सीसीटीवी, पोस्टिंग में पारदर्शिता, राजनीतिक दखल खत्म, मानवाधिकार प्रशिक्षण, हिरासत में मौतों पर फास्ट-ट्रैक कोर्ट। ये सब हो तो बात बने।
क्या हम लोकतंत्र में रह रहे हैं, या वर्दी के आतंक के राज्य में? अगर आज आवाज़ नहीं उठी, तो अगला नाम किसी भी आम आदमी का हो सकता है… शायद आपका भी।
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