मध्य प्रदेश के मैहर जिले में माता शारदा का प्रसिद्ध मंदिर है। मान्यता है कि शाम की आरती होने के बाद जब मंदिर के कपाट बंद करके सभी पुजारी नीचे आ जाते हैं, तब यहां मंदिर के अंदर से घंटी और पूजा करने की आवाजें आती हैं।
कहा जाता है कि मां के भक्त आल्हा अभी भी पूजा करने यहां आते हैं। अक्सर सुबह की आरती वही करते हैं। जब ब्रह्म मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा संपन्न हुई मिलती है। इस रहस्य को सुलझाने के लिए कई वैज्ञानिकों की टीम भी यहां कई बार डेरा जमा चुकी है, लेकिन फिलहाल रहस्य बरकरार है।
अब सवाल यह है कि यह आल्हा कौन थे? तो आल्हा वही ऊदल के भाई थे जो बुन्देलखण्ड के महोबा वीर परमार के सामंत थे। कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नाम के एक कवि ने ‘आल्हा खण्ड’ नामक एक काव्य रचा था। उसमें इन वीरों की गाथा वर्णित है। इस ग्रंथ में दों वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन है। आखिरी लड़ाई उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ लड़ी थी।
आल्हाखण्ड के अनुसार इन दोनों भाइयों का युद्ध दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ था। पृथ्वीराज चौहान युद्ध में हार गए लेकिन इस युद्ध में आल्हा का भाई वीरगति को प्राप्त हो गया। इसके पश्चात उनके मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने संन्यास ले लिया। गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया। पृथ्वीराज चौहान के साथ उनकी यह आखिरी लड़ाई थी।
मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था।लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी तलवार शारदा मंदिर में चढ़ाकर उसकी नोंक टेढ़ी कर दी, जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। मंदिर परिसर में ही तमाम ऐतिहासिक महत्व के कई अवशेष आज भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान की जंग की गवाही देते हैं। मान्यता है कि मां ने आल्हा को उनकी भक्ति और वीरता से प्रसन्न होकर अमर होने का वरदान दिया था।
बुंदेली इतिहास में आल्हा-ऊदल का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। बुंदेली कवियों ने आल्हा का गीत भी बनाया है, जो सावन के महीने में बुंदेलखंड के हर गांव-गली में गाया जाता है।
त्रिकूट पर्वत पर स्थित माता के इस मंदिर को मैहर देवी का शक्तिपीठ कहा जाता है। मैहर का मतलब है मां का हार। माना जाता है कि यहां मां सती का हार गिरा था, इसीलिए इसकी गणना शक्तिपीठों में की जाती है। करीब 1,063 सीढ़ियां चढ़ने के बाद माता के दर्शन होते हैं। पूरे भारत में मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है।
कहते हैं कि आल्हा-ऊदल भाइयों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदादेवी के इस मंदिर की खोज की थी। आल्हा ने यहां 12 वर्ष तक माता की तपस्या की थी। आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे, इसीलिए प्रचलन में उनका नाम ‘शारदा माई’ हो गया। इसके अलावा, यह भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदिगुरु शंकराचार्य ने नवीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में की गई थी।
जनश्रुतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि मैहर नगर का नाम मां शारदा मंदिर के कारण ही अस्तित्व में आया। हिन्दू श्रद्धालुजन देवी को मां अथवा माई के रूप में परंपरा से संबोधित करते चले आ रहे हैं। माई का घर होने के कारण पहले माई घर तथा इसके उपरांत इस नगर को मैहर के नाम से संबोधित किया जाने लगा।
एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शंकर के तांडव नृत्य के दौरान उनके कंधे पर रखे माता सती के शव से गले का हार त्रिकूट पर्वत के शिखर पर आ गिरा। इसी वजह से यह स्थान शक्तिपीठ तथा नाम माई का हार के आधार पर मैहर के रूप में विकसित हुआ।
मैहर पर्वत का नाम प्राचीन धर्मग्रंथ 'महेन्द्र' में मिलता है। इसका उल्लेख भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी आया है। मां शारदा की प्रतिमा के ठीक नीचे न पढ़े जा सके शिलालेख भी कई पहेलियों को समेटे हुए हैं। वर्ष 1922 में जैन दर्शनार्थियों की प्रेरणा से तत्कालीन महाराजा ब्रजनाथ सिंह जूदेव ने शारदा मंदिर परिसर में जीव बलि को प्रतिबंधित कर दिया था।
पिरामिडाकार त्रिकूट पर्वत में विराजीं मां शारदा का यह मंदिर 522 ईसा पूर्व का है। कहते हैं कि 522 ईसा पूर्व चतुर्दशी के दिन नृपल देव ने यहां सामवेदी की स्थापना की थी, तभी से त्रिकूट पर्वत में पूजा-अर्चना का दौर शुरू हुआ। ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस तथ्य का प्रमाण प्राप्त होता है कि वर्ष 539 में चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नृपलदेव ने सामवेदी देवी की स्थापना की थी।
मैहर केवल शारदा मंदिर के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, बल्कि इसके चारों ओर कई प्राचीन धरोहरें बिखरी पड़ी हैं। मंदिर के ठीक पीछे आल्हा-ऊदल के अखाड़े हैं तथा यहीं एक तालाब और भव्य मंदिर है, जिसमें अमरत्व का वरदान प्राप्त आल्हा की तलवार उसी की विशाल प्रतिमा के हाथ में थमाई गई है।
इसके अलावा 950 ईसा पूर्व चंदेल राजपूत वंश द्वारा बनाया गया गोलामठ मंदिर, 108 शिवलिंगों का रामेश्वरम मंदिर, भदनपुर में राजा अमान द्वारा स्थापित किया गया हनुमान मंदिर व कई अन्य धार्मिक केंद्र यहां मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त, मैहर क्षेत्र के ग्राम मड़ई, मनौरा, तिदुंहटा व बदेरा में सदियों पुराने भवन व शिलालेख हैं, जो भारतीय इतिहास को एक नए आलोक में झांकने का अवसर प्रदान करते हैं। शिव पुराण के मुताबिक बदेरा में ही शिवभक्त बाणासुर की राजधानी थी जिसकी पुष्टि बदेरा के जंगल में जगह-जगह मिले शिव मंदिरों के भग्नावशेष व शिवलिंग करते हैं।
इस मंदिर तक आने के लिए आप सतना के रेलवे स्टेशन तक ट्रेन से आ सकते है। यहां से उतरने के बाद आपको ऑटो या रिक्शा मिल जाएगा, जो सीधा आपको मंदिर तक पहुंचा देगा। स्टेशन से मंदिर की दूरी मात्र दो किमी ही है। आप चाहें तो मंदिर के आसपास होटल लेकर आराम करने के बाद अपनी चढ़ाई कर सकते है।
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