अधिक बच्चे पैदा करने के आह्वान से छिड़ी नई बहस

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन द्वारा नागरिकों से अधिक बच्चे पैदा करने के आह्वान ने आर्थिक, सामाजिक और नैतिक चिंताओं को छूते हुए एक नई बहस छेड़ दी है।  ध्यान रहे, दक्षिणी राज्यों में उच्च जन्म दर को प्रोत्साहित करने के विचार के पक्ष में काफी नेता मैदान में उतर आए हैं।

गौरतलब है कि नेताओं को अपने स्वार्थ की चिंता ज्यादा है। आम नागरिकों की खुशहाली और बेहतर जीवन शैली की उन्हें ज्यादा परवाह नहीं है। नायडू कहते हैं कि राज्य में वृद्धों की संख्या बढ़ रही है और युवा कम हो रहे हैं। उधर, स्टालिन को लोक सभा में अपनी घटती सीटों की चिंता सता रही है। उनकी अब 41 से 39 सीटें रह गई हैं। यह संख्या अभी आगे और घट सकती हैं। देश के कई और राज्यों में भी संतुलन बिगड़ना सुनिश्चित है।

राजनीतिक टिप्पणीकार पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि जनसांख्यिकीय प्रतिनिधित्व एक अहम मसला है। जन्म दर बढ़ाने के लिए प्राथमिक तर्कों में से एक चिंता यह है कि घटती आबादी संसद में कम प्रतिनिधित्व की ओर ले जा सकती है। इसके उलट, अधिक आबादी यह सुनिश्चित कर सकती है कि राज्यों के पास अधिक राजनीतिक शक्ति और संसाधन हों, जो विकास परियोजनाओं और सरकारी सहायता के लिए महत्वपूर्ण हैं।

बढ़ती आबादी आर्थिक विकास को गति दे सकती है। युवा आबादी श्रम शक्ति में योगदान देती है, जिससे उत्पादकता और नवाचार में वृद्धि होती है। यह प्रौद्योगिकी और सेवाओं जैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो सकता है, जो युवा जनसांख्यिकी पर पनपते हैं।

मैसूर की एक सामाजिक कार्यकर्ता के अनुसार जन्म दर बढ़ाने से सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं को बनाए रखने में मदद मिल सकती है। जैसे-जैसे आबादी घटती है, स्थानीय रीति-रिवाज, भाषाएं और मूल्य फीके पड़ने का जोखिम रहता है। बड़े परिवारों को प्रोत्साहित करने से इन सांस्कृतिक पहचानों को बनाए रखने में मदद मिल सकती है। साथ ही बुजुर्गों बढ़ती आबादी बुज़ुर्गों की भी मदद कर सकती है। ज़्यादा बच्चों का मतलब है संभावित देखभाल करने वालों और सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में योगदान देने वालों का बड़ा आधार, जिससे युवा पीढ़ी पर बोझ कम करने में मदद मिलती है।

कोयंबटूर के गोपाल कृष्णन कहते हैं कि दक्षिणी राज्यों में कई उद्योग कार्यबल की कमी का सामना कर रहे हैं। उच्च जन्म दर को प्रोत्साहित करने से कृषि, स्वास्थ्य सेवा और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों के श्रम बाज़ार में कमी को पूरा करने में मदद मिल सकती है।

भारत में परिवार नियोजन कार्यक्रम 1950 के दशक में ही शुरू हो गया था। दक्षिण के राज्यों में, खासतौर से केरल में, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की वजह से परिवार नियोजन के बारे में जागरूकता आजादी के पूर्व से ही काफी सराहनीय स्तर की रही है।

अधिकांश लोग मानते हैं कि बच्चों की परवरिश के लिए वित्तीय, भावनात्मक और पर्यावरणीय जैसे संसाधनों की आवश्यकता होती है। उच्च जन्म दर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और बुनियादी ढांचे सहित राज्य के संसाधनों पर दबाव डाल सकती है, जिससे अगर कुशलतापूर्वक प्रबंधन नहीं किया जाता है तो जीवन की गुणवत्ता खराब हो सकती है।

पालघाट, केरल की स्कूल टीचर सविता को डर है कि बच्चों की संख्या बढ़ाने पर जोर देने से पालन-पोषण की गुणवत्ता के महत्व को नजरअंदाज किया जा सकता है। माता-पिता के लिए पर्याप्त शिक्षा और देखभाल प्रदान करना महत्वपूर्ण है। मात्रा पर ध्यान केंद्रित करने से प्रत्येक बच्चे के भविष्य में अपर्याप्त निवेश हो सकता है।

हरित कार्यकर्ता डॉ देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं कि उच्च जन्म दर पर्यावरणीय चुनौतियों को बढ़ा सकती है। बढ़ी हुई आबादी आमतौर पर संसाधनों की अधिक खपत और अधिक पारिस्थितिकी जन्य समस्याओं की ओर ले जाती है, जिससे जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और प्रदूषण जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर का कहना है कि परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करना व्यक्तिगत पसंद और महिलाओं के प्रजनन अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है। परिवार नियोजन व्यक्ति का व्यक्तिगत परिस्थितियों और इच्छाओं के आधार पर निर्णय होना चाहिए, न कि राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित होना चाहिए।

दक्षिणी राज्यों में परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करना, दोनों ही तरह के तर्क और महत्वपूर्ण चिंताएं प्रस्तुत करता है। जबकि, इसके संभावित लाभों में जनसांख्यिकीय प्रतिनिधित्व और आर्थिक जीवन शक्ति में वृद्धि शामिल है। दूसरी ओर, संसाधन तनाव, पर्यावरणीय प्रभाव और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े जोखिम भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।

लोकतंत्र वोटों की राजनीति से चलता है। जिसकी जितनी संख्या, उतना ही भारी वजन, दबदबा या आवाज। केंद्र सरकार विकास के लिए दक्षिणी राज्यों को नुकसान न होने दे, संसद में प्रतिनिधित्व कम करके। बल्कि समय आ गया है जब लोक सभा की 750 सीटें की जाएं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नई संसद की इमारत में 750 सांसदों के बैठने की व्यवस्था पहले से ही है।

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