आज 15 फरवरी है, लेकिन इतिहास के पन्नों में आज से 89 साल पहले क्या हुआ था, यह शायद कम लोग ही जानते होंगे। आजादी के लिए देश के कोने-कोने में लड़ी गई लड़ाइयां समय-समय पर कहानी और किताबों के माध्यम से सामने आती रही हैं। तारापुर के शहीदों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में बिहार के मुंगेर जिले स्थित तारापुर के शहीदों का जिक्र किया था।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 15 फरवरी 1932 को देशभक्तों की एक टोली के कई वीर नौजवानों की अंग्रेजों ने बड़ी ही निर्ममता से हत्या कर दी थी। उनका एकमात्र अपराध यह था कि वे ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत मां की जय’ के नारे लगा रहे थे।
बात तब की है जब 1930 के दशक में तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए देश के कोने-कोने से स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी निकल रही थी। उनमें से एक बिहार राज्य के मुंगेर में स्थित स्थान तारापुर भी है। जहां 15 फरवरी की दोपहर में क्रांतिवीरों का एक जत्था घरों से बाहर निकला। क्रांतिवीरों का दल तारापुर के तत्कालीन ब्रिटिश थाना पर राष्ट्रीय झंडा फहराने के लिए तिरंगा हाथों में लिए बेखौफ बढ़ता जा रहा था और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए जनता खड़ी होकर भारत माता की जय, वंदे मातरम आदि का जयघोष कर रही थी। तभी मौके पर मौजूद कलेक्टर ई ओली व एसपी डब्लूएस मैग्रेथ ने निहत्थे स्वतंत्रता सेनानियों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दीं। गोलियां चलती रहीं और आजादी के दीवाने वहां से हिले तक नहीं। देखते ही देखते 34 लोगों की शहादत के बीच धावक दल के मदन गोपाल सिंह, त्रिपुरारी सिंह, महावीर सिंह, कार्तिक मंडल व परमानन्द झा ने ब्रिटिश थाने पर तिरंगा फहरा दिया।
अंग्रेजी हुकूमत की इस बर्बर कार्रवाई में 34 स्वतंत्रता प्रेमी शहीद हुए। हालांकि, विद्रोह को दबाने के लिए आनन-फानन में अंग्रेजों ने कायरतापूर्वक वीरगति को प्राप्त कई सेनानियों के शवों को वाहन में लदवाकर सुल्तानगंज भिजवाकर गंगा में बहा दिया।
साल 1932 की इस घटना ने उन दिनों एक बार फिर 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग गोलीकांड की बर्बरता की याद ताजा कर दी थी। तभी से हर साल तारापुर शहीद दिवस प्रत्येक वर्ष 15 फरवरी को मनाया जाता है। इतिहासकार डीसी डीन्कर ने अपनी किताब "स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान" में भी तारापुर की इस घटना का जिक्र किया है।
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