नवंबर 6 और 11 को होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव, और 14 तारीख को आने वाले नतीजे, इस बार सिर्फ़ एक राजनीतिक मुक़ाबला नहीं बल्कि लोकतंत्र की एक बड़ी परीक्षा माने जा रहे हैं। 243 सीटों पर वोटिंग होगी और 7.42 करोड़ से ज़्यादा मतदाता, जिनमें 14 लाख नए वोटर शामिल हैं, तय करेंगे कि बिहार की गद्दी पर कौन बैठेगा, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला एनडीए या तेजस्वी यादव का इंडिया गठबंधन।
फिलहाल हवा एनडीए के पक्ष में बहती दिखाई दे रही है। जेडीयू और भाजपा का गठबंधन, पिछले लोकसभा चुनावों की तरह, इस बार भी संगठित और आत्मविश्वास से भरा है। न्यूजएक्स और एबीपी सर्वे के मुताबिक़ एनडीए को 150-160 सीटों तक मिलने की संभावना है, जबकि बहुमत के लिए 122 सीटें काफ़ी हैं। भाजपा को इस बार ‘सिंगल लार्जेस्ट पार्टी’ बनने का भरोसा है, क्योंकि उसने 2024 में बिहार की 40 में से 30 लोकसभा सीटें जीती थीं।
Read in English: Battle for Bihar: Struggle for power or people’s retribution?
नीतीश कुमार अब भी बिहार के ‘सुशासन बाबू’ कहलाते हैं। 20 साल से ज़्यादा सत्ता में रहने के बावजूद उनकी छवि एक व्यावहारिक और स्थिर नेता की बनी हुई है। उन्होंने कानून-व्यवस्था में सुधार, सड़कों का जाल और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर काम किया है। भाजपा के केंद्रीय नेताओं, ख़ासकर अमित शाह, ने मोदी सरकार की योजनाओं को ‘गेम चेंजर’ बताया है, जैसे महिलाओं को ₹10,000 वार्षिक सहायता और युवाओं के लिए कौशल विकास कार्यक्रम।
दूसरी तरफ़ इंडी गठबंधन की लड़ाई कठिन नज़र आ रही है। तेजस्वी यादव बेरोज़गारी, शिक्षा और ‘हर बिहारी को बदलाव’ जैसे नारों के साथ मैदान में हैं। युवाओं में उनका असर दिखता है, ख़ासकर शहरी मतदाताओं और प्रथम बार वोट देने वालों में। मगर गठबंधन की सबसे बड़ी मुश्किल है एकता की कमी। तेज प्रताप यादव के अलग दल ‘जनशक्ति जनता दल’ ने कुछ हद तक यादव वोटों में सेंध लगाने का खतरा पैदा किया है।
इसी बीच, प्रशांत किशोर की पार्टी ‘जन सुराज’ भी इस चुनाव में तीसरे मोर्चे के रूप में उतर रही है। उसका वोट प्रतिशत भले ही कम दिख रहा हो, लेकिन यह विपक्षी वोटों में कटाव ला सकता है। किशोर का फोकस भ्रष्टाचार के खिलाफ़ और विकास-केंद्रित राजनीति पर है, जिससे वह नौजवान वर्ग को आकर्षित कर रहे हैं।
टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि विपक्ष ने इस बार इलेक्शन कमीशन को कटघरे में खड़ा करने की नाकामयाब कोशिश की। "इस चुनाव की सबसे बड़ी बहस चुनाव आयोग की ‘विशेष मतदाता सूची संशोधन’ प्रक्रिया को लेकर है। चुनाव आयोग का कहना है कि यह ‘डेटा साफ़ करने’ का प्रयास था, जिसमें डुप्लीकेट नाम हटाए गए। मगर आधार लिंकिंग से जुड़ी अनियमितताओं ने विवाद बढ़ा दिया है। हालांकि आयोग ने पारदर्शिता के लिए 100 फीसदी वेबकास्टिंग, नई डिज़ाइन की ईवीएम और विशेष पर्यवेक्षकों की नियुक्ति जैसी व्यवस्थाएं की हैं, फिर भी मतदाताओं के बीच अविश्वास बना हुआ है।"
बिहार के समाज विज्ञानी टीपी श्रीवास्तव के मुताबित इस चुनाव में सबसे दिलचस्प और निर्णायक भूमिका युवा मतदाताओं की है। इनकी संख्या करीब 1.4 करोड़ है। ये जाति समीकरणों से हटकर नौकरी, शिक्षा और अवसर की बात कर रहे हैं। युवा अब विकास की ज़मीन पर वोट दे रहे हैं, न कि केवल नारेबाज़ी पर। चिराग पासवान, और कई वोट कटवा गैंग की क्या भूमिका रहेगी, अभी क्लियर नहीं है।
विश्लेषक बता रहे हैं, बिहार में डिजिटल प्रचार का नया दौर शुरू हुआ है। इंस्टाग्राम रील से लेकर व्हाट्सऐप कैंपेन तक। युवा नेता सोशल मीडिया पर ज़्यादा सक्रिय हैं, और गांव-गांव ‘पन्ना प्रमुख’ और ‘युवा संवाद’ कार्यक्रमों से बूथ स्तर पर जुड़ाव बनाया जा रहा है।
अगर एनडीए दोबारा सत्ता में आता है, तो यह न केवल नीतीश कुमार के लिए आख़िरी कार्यकाल होगा बल्कि भाजपा के लिए बिहार की पकड़ और मज़बूत करने का मौका भी। वहीं इंडी गठबंधन की हार से विपक्षी राजनीति में नया फेरबदल हो सकता है, और तेजस्वी यादव की लीडरशिप पर सवाल उठेंगे।
बिहार का यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का खेल नहीं है, बल्कि यह देखना है कि लोकतंत्र कितना परिपक्व हो चुका है। यहां हर वोट मायने रखता है। हर नाम का हटना या जुड़ना, हर बूथ की गिनती, और हर उम्मीदवार के वादे का असर दिखेगा। यह चुनाव तय करेगा कि बिहार ‘स्थिरता’ चाहता है या ‘बदलाव’।
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