रिश्तों को तोड़ रही है स्क्रीन से चुपके रहने की लत

दक्षिण के एक नामी स्कूल में 16 साल की एक लड़की से शिक्षकों द्वारा की गई सामान्य पूछताछ ने डिजिटल युग का एक डरावना सच सामने ला दिया, जिससे छात्रों के सोशल मीडिया इस्तेमाल की अंधेरी दुनिया उजागर हो गई। 

शिक्षकों और प्रधानाचार्य द्वारा ऑनलाइन गतिविधियों को लेकर पूछे गए सवालों ने एक पिटारा खोल दिया है, जिसमें दर्जनों छात्रों से जुड़ी शिकायतें, अश्लील बातचीत और इंस्टाग्राम के एक ‘कन्फेशन्स पेज’ में शामिल होने के आरोप सामने आए। 

तनाव तब और बढ़ गया जब एक फोटो पोस्ट के कारण एक जोड़े का ब्रेकअप हो गया, और फिर कुछ लड़कों ने उस लड़की को धमकियां दीं जिसने तस्वीरें डाली थीं। मामला तेजी से बिगड़ता गया। अभिभावकों को बुलाया गया, शिक्षक खुद को असहाय महसूस करने लगे, और परामर्शदाताओं ने चेतावनी दी कि अगर स्थिति नहीं संभाली गई, तो पुलिस और साइबर क्राइम विभाग को शामिल करना पड़ सकता है। 

हालांकि, बढ़ते विवाद के बाद भी अभिभावकों ने शिकायतें वापस ले लीं, क्योंकि वे लंबी कानूनी लड़ाई और बदनामी से डर गए थे। एक अभिभावक ने कहा, "सब बेकार लगा। हमें लगा कि हार मान लेना ही एकमात्र विकल्प है।"

लेकिन, यह घटना एक डरावना सबक छोड़ गई है। शिक्षकों ने इसे आंखें खोल देने वाली घटना बताया, जबकि परामर्शदाताओं ने सख्त हस्तक्षेप की जरूरत पर जोर दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि अभिभावक और स्टाफ एकमत हो गए। अब उनकी मांग है कि स्कूली बच्चों को सोशल मीडिया के खतरों से बचाने के लिए एक राष्ट्रीय डिजिटल उपयोग नीति बनाई जाए।   

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, "हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो 'लाइक्स' को असली रिश्तों से ज्यादा अहमियत देती है। अगर जल्द ही कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनी, तो नुकसान और बढ़ जाएगा।"

तो फिर क्या हो सकता है समाधान? स्क्रीन टाइम की लिमिट तय करना, डिजिटल लिटरेसी प्रोग्राम चलाना, साइबर सुरक्षा की शिक्षा देना और  गलत जानकारी रोकने के अभियान चलाने से लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।

ज़्यादा स्क्रीन टाइम से बेचैनी, नींद की दिक़्क़त, ध्यान की कमी और पढ़ाई में गिरावट आ सकती है। तुलना और ‘वैलिडेशन’ की दौड़ से बच्चों में अवसाद, बॉडी-इमेज की समस्या और साइबर बुलिंग बढ़ सकते हैं।

एल्गोरिदम उपभोक्तावाद और एकरूप ग्लोबल कल्चर को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे स्थानीय तहज़ीब कमज़ोर हो रही है। सिर्फ़ स्क्रॉलिंग करने वाले बच्चे डिजिटल इकॉनमी में पिछड़ सकते हैं।

अगर अब भी समग्र राष्ट्रीय नीति नहीं बनी तो टेक्नोलॉजी कंपनियां बच्चों का बचपन, तालीम और आने वाली शहरी-देहाती ज़िंदगी को अपनी मर्ज़ी से ढालेंगी। यह सिर्फ़ स्क्रीन टाइम का मामला नहीं बल्कि एक पूरी नस्ल की सेहत, मानसिक हालत और पहचान को बचाने का सवाल है।



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