आंखों में सपने लिए, घर से वे चल तो दिए लेकिन राहें उन्हें न जाने कहां ले गईं। घर-परिवार के लोग ढूंढ़ते रहे और बीते आठ महीनों से तो कोई संदेशा भी नहीं आया। आई तो उनमें से एक की लाश, एक बैरंग लिफाफे की तरह। लाश... लेने के लिए भी नियोक्ता कंपनी ने मांगे तीन लाख रुपये, पैसे थे नहीं... आखिर, लाश तो मिल गई लेकिन लग गए और दो महीने। अब अंतिम संस्कार करके घर में मां-बाप और बहन-भाई बैठे हैं, रो रहे हैं कि आखिर किस बुरी घड़ी में उन्होंने अपने जिगर के टुकड़े को शारजाह जाने की अनुमति दे दी।
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