‘जिंदा कौम’ को पांच साल इंतजार करने के लिए क्यों कह रही है सरकार?

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का मुद्दा फिर से गर्म होने लगा है। साथ ही, यह बहस भी एक बार फिर से शुरू हो चुकी है कि क्या ऐसा करना जरूरी है!

पांच साल में 'एक बार' और 'एक साथ' चुनाव के लिए जो 'वजहें' बताई जा रही हैं, बेशक उनमें से कई 'जायज' हैं, लेकिन कई वजहें किसी भी तरह से गले नहीं उतरती हैं। खासकर, 'खर्चे' वाली बात तो बिल्कुल ही समझ में नहीं आती है। 4-6 हजार करोड़ रुपये से 133 करोड़ जनता को क्या 'फर्क' पड़ने वाला है, लेकिन नेताओं को 'जरूर' पड़ता होगा। आये दिन होने वाले चुनावों से हमारे सभी नेता कम से कम एक टांग पर 'खड़े' हुए दिखाई तो देते हैं। यदि पांच साल में एक बार ही चुनाव हुआ तो क्या इन नेताओं को इतनी लंबी खुली छूट नहीं मिल जाएगी?

'सुखी लोकतंत्र' के लिए रोजाना कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहने चाहिए, नेताओं को अपना 'रिपोर्ट कार्ड' मिलते ही रहना चाहिए। राम मनोहर लोहिया ने कभी कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती तो फिर आज की सत्ता एक जिंदा कौम को ऐसा करने पर मजबूर क्यों कर रही है?

इसी मुद्दे से जुड़े कई सवालों पर बातचीत करने के लिए आज हमारे साथ हैं वरिष्ठ पत्रकार विनीत सिंह

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क्या भारत जैसे सबसे बड़े लोकतंत्र में एक 'राष्ट्र-एक चुनाव' का मुद्दा देश की जनता के लिए जरूरी है?

‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के समर्थन में दिए जा रहे तर्कों को आप कैसे देखते हैं?

‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के विरोध में उठने वाली आवाजों को आप कैसे देखते हैं?

यदि ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ लागू हो जाता है तो सबसे ज्यादा फायदा किसका होगा?

‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ को लेकर भारतीय जनता के बीच कितना उत्साह है?

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